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हेल्थ डेस्क. कंधों और बाहों को मजबूत बनाने के लिए नियमित व्यायाम करना ज़रूरी है। ऐसे व्यायाम जो असरदार होने के साथ-साथ आसान भी हों। कुछ ऐसे ही व्यायाम लेकर आए हैं जिन्हें आसानी से कर सकते हैं। ये उन पीटी एक्सरसाइज की तरह है जिन्हें हम बचपन में स्कूल में करते थे। सभी व्यायाम एक-एक मिनट करना है और एक के बाद एक करना है।
दोनों पैरों को कमर के समानांतर फैलाएं। हाथेलियों को तस्वीर अनुसार आपस में जोड़ते हुए चेहरे के समानांतर रखें। कोहनियों को आपस में जोड़ें। अब हथेली और कोहनी को आपस में जोर से दबाते हुए चेहरे के ऊपर ले जाएं। फिर दबाते हुए सामान्य अवस्था में नीचे ले आएं। फिर ऊपर ले जाएं और इसे कई बार दोहराएं।
सीधे खड़े हो जाएं और दोनों पैरों को कमर के समानांतर फैलाएं। दोनों हाथों की मुट्ठी बांधकर चेहरे के समानांतर लाकर आपस में जोड़ें। तस्वीर अनुसार कोहनियों को भी आपस में जोड़ें और आपस में जोर से दबाएं। अब मुट्ठी से हाथों पर ज़ोर देते हुए बाहों को एकसाथ तस्वीर अनुसार खोलें और कंधे के समानांतर ले जाएं। जोर देते हुए हाथों को वापस चेहरे के समने ले आएं। इसे कई बार दोहराएं।
सीधे खड़े हो जाएं और पैरों को कमर के समानांतर फैलाएं। बाहों को कंधे की सीध में फैलाएं और मुट्ठी बांध लें। दोनों हाथों की कोहनियों को मोड़ते हुए समकोण आकार दें। अब मुट्ठी से हाथों पर ज़ोर देते हुए बाहों को आगे की ओर लाएं और फिर जोर देते हुए बाहों और कोहनी को पीछे ले जाएं। बाहों को पीछे ले जाते हुए खींचें। इसे कई बार दोहराएं।
पैरों को हल्का-सा फैलाते हुए घुटनों को थोड़ा मोड़ लें और तस्वीर अनुसार कंधे को आगे की ओर झुकाएं। कोहनी मोड़ते हुए मुट्ठी बांधें और कंधों के सामने रखें। इसी अवस्था में मुट्ठी से हाथों को जोर देते हुए तस्वीर अनुसार कमर के पीछे ले जाएं। फिर जोर देते हुए कंधे की ओर आगे ले आएं। इसे इस तरह करना है जैसे हाथों में डंबल्स पकड़े हुए हैं।
हेल्थ डेस्क. बदलते खान-पान और जीवनशैली के कारण इन दिनों अमूमन लोगों को पेट से सम्बंधित कई समस्याएं होने लगी हैं। इनमें से एक है एसिडिटी। एसिडिटी एक आम समस्या है जिससे अक्सर लोगों को दो-चार होना पड़ता है। अगर आपको भी ये परेशानी है तो इस पर गौर कीजिए। निरोग स्ट्रीट की सह उपाध्यक्ष डॉ. पूजा कोहली बता रही हैं एसिडिटी से निजात पाने के उपाय...
नाभि के ऊपरी हिस्से में ज्यादा एसिड बनने लगता है जिससे वहां जलन पैदा होने लगती है। कभी-कभी ये एसिड ऊपर की तरफ गले में आ जाता है जिससे खट्टी डकारें और जलन होने लगती है। ये मुख्य रूप से पित्त के कारण होता है। जब पेट में गर्माहट बढ़ने लगती है तो गर्म तासीर वाली चीजें, अधिक मिर्च, मसाला या खटाई खाने से पेट में पित्त उत्पन्न होता है। सीने और गले में लगातार जलन, सूखी खांसी, पेट फूलना, सांसों में बदबू, खट्टी डकार, कभी-कभी उल्टी होना, उल्टी में अम्ल या खट्टे पदार्थ का निकलना जैसी समस्याएं एसिडिटी के कारण होने लगती हैं।
अगर एसिडिटी लंबे समय से है तो इससे पेट में छाले या सूजन हो सकती है। इरिटेबल बाउल सिंड्रोम जो कि आंत को प्रभावित करती है, मालबसोर्पशन सिंड्रोम जिसमें शरीर खाद्य पदार्थों से पोषण तत्वों को अवशोषित नहीं कर पाता है और एनीमिया जैसी परेशानियां भी हो सकती हैं।
अगर आप गुनगुना पानी पीकर दिन की शुरूआत करते हैं तो एसिडिटी से काफ़ी आराम मिलेगा। गुनगुने पानी में थोड़ी-सी पिसी काली मिर्च और आधा नींबू निचोड़कर नियमित रूप से सुबह पीने से भी लाभ होता है।
भोजन के बाद सौंफ खाने से भी एसिडिटी में राहत मिलती है। सौंफ पेट में ठंडक पैदा करके एसिडिटी को कम करता है। सौंफ को सीधे चबाकर या फिर इसकी चाय बनाकर पी सकते हैं। नींबू पानी में थोड़ी शक्कर मिलाकर पीने से भी एसिडिटी नहीं होती। लंच के कुछ समय पहले इसे लेने से अधिक फ़ायदा होगा।
ठंडा दूध एसिडिटी के लिए रामबाण उपाय है। ठंडे दूध में मौजूद कैल्शियम एसिडिटी के दर्द को शांत कर देता है। इसलिए जब भी पेट में जलन या गैस की वजह से पेट दर्द महसूस हो तो ठंडे दूध का सेवन कर सकते हैं। मुनक्के को एक गिलास दूध में उबालकर ले सकते हैं। ये अम्लपित्त को खत्म करता है।
गंभीर और खतरनाक के बीच हवा की गुणवत्ता में लगातार उतार-चढ़ाव देखने को मिल रहा है इसलिए इस दौरान सावधानी बरतनी आवश्यक है, खासकर यदि आपके घर में छोटे बच्चे या बुजुर्ग हैं। आउटडोर और इनडोर वायु प्रदूषण से निमोनिया और अन्य सांस से जुड़ी कई संक्रामक बीमारियों से सीधे जुड़ी हुई हैं। वायु प्रदूषण पांच साल से कम उम्र के बच्चों की 10 मौतों में से एक में जोखिम कारक है, जिससे वायु प्रदूषण बच्चों के स्वास्थ्य के लिए एक प्रमुख खतरा बन चुका है।
ऐसे में 5 वर्ष तक की आयु के बच्चों के लिए सबसे खतरनाक और संक्रमित बीमारी निमोनिया है जो एक तीव्र श्वसन संक्रमण का रूप है। निमोनिया एक सिंड्रोम है जिसमें वायरल, बैक्टीरियल और फंगल रोग जनकों सहित कई कारण होते हैं। निमोनिया होने पर साँस लेने में मुश्किल होती है और खासकर छोटे बच्चों को ज्यादा परेशानी होती है। गंभीर स्थिति में शिशु खाने या पीने में असमर्थ हो जाते हैं जिस वजह से ये बीमारी जानलेवा भी साबित हो जाती है।
बच्चों में न्यूमोनिया की स्थिति
दुनिया में सबसे अधिक भारत के नवजात बच्चे निमोनिया की बीमारी से ग्रसित होते हैं खासकर 5 साल से कम उम्र के बच्चों में ये बीमारी अधिकतर पाई जाती है जो उनकी मौत का भी एक प्रमुख कारण बनती है। वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गनाइजेशन (WHO) की एक ताज़ा रिपोर्ट के अनुसार, निमोनिया दुनिया भर में बच्चों की मृत्यु का सबसे बड़ा संक्रामक कारण है। 2017 में 5 साल से कम उम्र के 808 694 बच्चों की मौत निमोनिया के कारण हो गई, जिसमें 15% मृत्यु की घटनाओं में पांच साल से कम उम्र के बच्चे शामिल हैं ।
ऐसे में बच्चों को निमोनिया से बचाने के लिए उनकी देखभाल करने के साथ कुछ जरूरी बातों पर भी ध्यान देना बहुत जरूरी होता है। इसके लिए बच्चों के माता- पिता व परिजनों निमोनिया के संकेतों को पहचानना बहुत जरूरी है इसके साथ ही बच्चों के सांस लेने के पैटर्न को भी समझना बेहद आवश्यक है। अगर बच्चों के सांस लेने के पैटर्न में किसी भी प्रकार का परिवर्तन देखने को मिले तो तुरंत ही डॉक्टर से संपर्क करना चाहिए।
• निमोनिया की रोकथाम के लिए नियमित टीकाकरण पालन करें
• पहले 6 महीनों के लिए विशेष स्तनपान
• सुरक्षित पेयजल, अच्छी स्वच्छता और साबुन से बार-बार हाथ धोना
• अच्छा पोषण, विशेष रूप से 6 महीने से अधिक उम्र के बच्चों के लिए
• इनडोर वायु गुणवत्ता में सुधार और स्वच्छता बनाए रखें
• जल्द से जल्द एक डॉक्टर से परामर्श करें।
ऐसे में फिलिप्स इंडिया एक जिम्मेदार ब्रांड होने के नाते भारत के बच्चों में होने वाली निमोनिया बीमारी के बारे में जागरूकता फैलाने के लिए एक सीएसआर अभियान 'हर सांस में जिंदगी ’की शुरुआत की है। जिसके द्वारा लोगों के स्वास्थ्य में सुधार और स्वस्थ रहने और रोकथाम, निदान और उपचार से स्वास्थ्य निरंतरता में बेहतर परिणामों को सक्षम करने के लिए काम किया जा रहा है।
क्यों फिलिप्स बचपन निमोनिया की रोकथाम का समर्थन कर रहा है?
• बच्चों में निमोनिया बीमारी और उससे होने वाली मृत्यु दर के मामले में भारत टॉप 10 देशों में शुमार है।
• यह एक संक्रमित रोग है जिसका आसानी से उपचार व रोकथाम किया जा सकता है।
• निमोनिया की बीमारी से जुड़े रिसर्च प्रोग्राम, जागरूकता फैलाने के लिए ग्लोबल हेल्थ कम्यूनिटी द्वारा इस जरूरत के मुताबिक आर्थिक रूप से मदद नहीं मिल पाती।
लाइफस्टाइल डेस्क. सोशल मीडिया पर अपनी आकर्षक फोटो पोस्ट करने के लिए लोग दुनियाभर में ट्रैवल कर रहे हैं और इस पर जमकर खर्च भी कर रहें है। वर्ष 2011 में आई बॉलीवुड फिल्म जिंदगी न मिलेगी दोबारा में दिखाया गया था कि तीन युवा अपनी-अपनी पसंद की जगह घूमने निकलते हैं। उनका फलसफा है कि उनके पास जो पल हैं उनमें पूरा इंजॉय किया जाए। आज का नौजवान भी इसी फसलफे को ध्यान में रखकर जी रहा है और अपनी लाइफस्टाइल पर खुलकर खर्च कर रहा है। इसके लिए वह ट्रैवल लोन लेने में भी पीछे नहीं हैं। अब सिर्फ जरूरतों के लिए नहीं बल्कि ट्रैवल के लिए भी लोन की लोकप्रियता युवाओं में बढ़ गई है। ट्रैवल लोन के साथ पेश किए जाने वाले ऑफर्स के चलते लोगों के बीच इसकी जागरुकता भी बढ़ रही है। इसकी डिमांड को देखते हुए आजकल आसानी से ट्रैवल लोन मिल जाता है। ट्रैवल लोन की एप्लीकेशन बिना किसी दिक्कत के जल्दी प्रोसेस हो जाती है। हाल ही में डिजिटल लेंडिंग प्लेटफॉर्म इंडिया लेंड्स ने रिपोर्ट जारी की है, जिसमें यह बात सामने आई कि भारत में घूमने के लिए युवा सबसे अधिक लोन लेते हैं। रिपोर्ट के मुताबिक, घूमने के मकसद से लिए गए लोन में 55 फीसदी तक की बढ़ोतरी हुई है। सर्वे में यह बात निकल कर सामने आई कि 85 फीसदी भारतीय युवा अपने घूमने-फिरने का सपना लोन लेकर पूरा कर रहे हैं। इन लोगों ने 30,000 से लेकर 2.5 लाख रुपए तक का लोन घूमने-फिरने के लिए ही लिया है।
इंडिया लेंड्स की रिपोर्ट के मुताबिक, लोन लेने वाले अमूमन उन देशों में जाना पसंद करते हैं जो वीजा ऑन अराइवल की सुविधा देते हैं। इसका कारण यह है कि ज्यादातर युवा अंतिम समय में हॉलीडे के लिए लोन लेते हैं। वीजा ऑन अराइवल की सुविधा देने वालों में देशों में थाईलैंड, श्रीलंका, इंडोनेशिया, नेपाल, मालदीव और भूटान प्रमुख हैं। इसके अलावा लोग सस्ते हॉलीडे डेस्टिनेशन के लिए भी लोन लेते हैं। यूरोप, अमेरिका, दक्षिण अफ्रीका, ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड भी युवाओं में लक्जरी हॉलीडे मनाने के लिए लोकप्रिय हैं। जानकारी के मुताबिक, इस तरह के लोन में कर्ज की रकम आमतौर पर आवेदन के 24 से 36 घंटों के बाद जारी कर दी जाती है और छुट्टियों के दौरान खर्च होने वाली सभी चीजें उसमें कवर होती हैं।
थॉमस कुक इंडिया के अनुसार, पिछले साल 25 से 35 वर्ष के युवाओं द्वारा घूमने के लिए ट्रैवल लोन की मांग में 50 से 60 फीसदी की वृद्धि हुई। रिपोर्ट के अनुसार, छोटे शहरों में मांग बढ़ने और भारत के बचत करने वाली अर्थव्यवस्था से खर्च करने वाली अर्थव्यवस्था बनने सहित कई अन्य पहलुओं के कारण लाने की मांग में यह तेजी दर्ज की गई। रिपोर्ट के अनुसार, घूमने के लिए नए यात्रियों की संख्या मेट्रो से कहीं तेजी से छोटे शहरों में बढ़ी है। मेट्रो शहरों में शामिल मुंबई, नई दिल्ली, हैदराबाद, बेंगलुरु और चेन्नई में नए घमूने वालों की संख्या करीब 20 फीसदी का इजाफा पिछले साल आया। वहीं टियर टू और थ्री शहरों में शामिल अमृतसर, करनाल, गुवाहाटी, रांची, औरंगाबाद, विशाखापत्तनम, हुबली, उदयपुर और विजयवाड़ा में 30 फीसदी का उछाल देखने को मिला है।
ट्रैवल लोन एक तरीके का पर्सनल लोन ही है, जिसमें ट्रैवलिंग खर्चों के लिए बैंक या फाइनेंस कंपनियां आपको लोन के रूप में पैसे देती हैं। बैंक और वित्तीय कंपनियों की तरफ से नए-नए प्रोडक्ट बाजार में उतारे जाते हैं, जिनका बहुत से लोग फायदा उठा रहे हैं। अग आप ट्रैवल लोन लेना चाहते हैं तो इसके लिए खुद ही प्लान बनाएं। इस प्लान में जहां जाना चाहते हैं, वहां आने-जाने का खर्च जोड़ें। इसके बाद नेट पर अपनी जरूरत के हिसाब का होटल या अन्य जगह रुकने के लिए पसंद करें। इसका एक रफ इस्टीमेट बना लें। इसके बाद इस बजट में वहां पर खाने पीने के अलावा जरूरी शॉपिंग के खर्च भी जोड़ लें। इतना करने के बाद आपको अंदाजा हो जाएगा कि इस ट्रिप के लिए आपको कितने रुपयों की जरूरत पड़ेगी और आपके पास कितने रुपए हैं। ऐसे में आपको जितने रुपए इस टूर में कम पड़ रहे हैं उनके लिए ट्रैवल लोन का सहारा ले सकते हैं। इसके लिए आप इंटरनेट की मदद से कम ब्याज दर, जल्दी और आसनी से लोन देने वाले बैंक या फाइनेंस कंपनियों को चेक कर सकते हैं। इस तरह के लोन की ईएमआई भी युवाओं की जेब के हिसाब से आसान होती है।
फेस्टिवल टूरिजम का एक नया ट्रेंड इन दिनों तेजी से उभरकर सामने आया है। एक रिपोर्ट के मुताबिक, 2017 में दिवाली के मौके पर जहां बुकिंग 9 फीसदी थी, वहीं 2018 में यह 9.5 फीसदी हो गई। वर्ल्ड ट्रैवल एंड टिरिज्म काउंसिल की रिपोर्ट के अनुसार, पिछले साल के मुकाबले इस साल दिवाली के मौके पर ज्यादा लोगों के अपने शहर से बाहर घूमने जाने के चांस हैं। ट्रेन और फ्लाइट की रिपोर्ट्स के मुताबिक, पिछले साल यह आंकड़ेदिवाली आने तक 11 फीसदी थे और इस साल यह आंकड़ा आसानी से पार हो जाएगा। आमतौर पर पहले लोग गर्मियों और सर्दी की छुट्टियों में बाहर घूमने जाते थे, लेकिन अब वह कॉन्सेप्ट खत्म हो चुका है। अब लोग साल में तीन से चार बार बाहर घूमने जाते हैं, छोटी-छोटी छुट्टियों पर। त्योहारों पर भी अब लोग घर पर नहीं रहते, घूमने निकल जाते हैं। बुकिंग आंकड़ों पर नजर डालें, तो हर साल घूमने वालों की संख्या में 2 से 3 फीसदी का इजाफा होता है। फेस्टिवल टूरिज्म के इस नए ट्रेंड के पीछे आसानी से उपलब्ध ट्रैवल लोन को भी मुख्य कारण माना जा रहा है।
ट्रैवल कंपनियों के मुताबिक, फेस्टिवल टूरिज्म करने वालों में कपल ट्रैवलर्स की तादाद ज्यादा है। एक ट्रैवल कंपनी एक्सप्लोर के मुताबिक, फेस्टिवल टूरिजम में 28 फीसदी यात्री कपल ट्रैवलर्स होते हैं। इनके इंटरनेशनल हॉट डेस्टिनेशन्स हैं सिंगापुर, मलेशिया और दुबई, तो इंडिया में गोवा, अंडमान, निकोबार, नैनीताल और मनाली जैसी जगहों पर घूमने जाना ज्यादा कपल्स पसंद करते हैं। यही नहीं, घूमने जाने की प्लानिंग भी कपल्स 70 से 80 दिन पहले ही करने लगे हैं। मिलता है त्योहार का माहौल एक रिपोर्ट के मुताबिक, पिछले साल होली और दिवाली पर लोगों ने घूमने के उद्देश्य से काफी बुकिंग की। खासतौर पर दिवाली पर बुकिंग करने वालों की तादाद होली से कई गुना ज्यादा थी। ट्रैवल सर्च इंजन के मुताबिक, फेस्टिवल टूरिज्म में बुकिंग तो हो ही रही है, डिमांड भी कई तरह की है। इसलिए हम अब टूरिस्ट को दूसरे पैकेज के साथ वहां त्योहार मनाने का माहौल भी देने लगे हैं। इसके लिए कई तरह के पैकेज निकाले जाते हैं, जिसमें आप अपनी फैमिली के साथ किसी शांत या खूबसूरत जगह पर त्योहार एंजॉय कर सकते हैं। यह मनोरंजन के साथ धार्मिक महत्व से भी जोड़ता है।
ट्रैवल एक्सपर्ट्स का मानना है कि इस ट्रेंड के पीछे एक बड़ा कारण है कि लोग ट्रैवल पर खर्च करने से कतराते नहीं। पिछले साल तक लोग घूमने जाने पर अमूनन 60 हजार रुपए तक खर्च करते थे, अब 1 लाख तक खर्च करने को तैयार हैं। पिछले साल के मुकाबले, अब 20 फीसदी ज्यादा खर्च करने से नहीं कतरा रहे हैं।
साइंस डेस्क. अमेरिकी शोधकर्ताओं ने चूहों को खाने के बदले छोटी कार चलाने का प्रशिक्षण देने में सफलता हासिल की है। शोधकर्ताओं के मुताबिक, चूहे जब कुछ नया सीखते हैं तो उनमें तनाव का स्तर भी घटता है। अध्ययन अमेरिका की रिचमॉन्ड यूनिवर्सिटी ने किया है। रिसर्च में दावा किया गया है कि चूहों का दिमाग काफी संवेदनशील है और इनकी मदद से भविष्य में बिना दवाओं से बीमारियों का इलाज ढूंढने में मदद मिलेगी।
शोधकर्ता लैम्बर्ट के मुताबिक, प्रयोग में यह स्पष्ट हुआ है कि कैसे नए चैलेंज और अनुभव महसूस करने के बाद दिमाग में बदलाव आता है। चूहे अपने घर और लैब दोनों जगह रहने के बाद कैसा महसूस करते हैं, यह भी जानने की कोशिश की जा रही है।
शोधकर्ता लैम्बर्ट ने टीम के साथ मिलकर रोबोट कार किट तैयार की है। इसमें ड्राइवर कंपार्टमेंट की जगह खाली फूड कंटेनर लगाया गया है। इसकी तली में एल्युमिनियम प्लेट का इस्तेमाल हुआ है। इसके अलावा कॉपर वायर भी लगाया गया है, जिसकी मदद से कार दाएं, बाएं और सीधी दिशा तय करती है।
जब कार में एल्युमिनियम प्लेट पर चूहे को रखा जाता है तो वह वायर को छूता है। सर्किट के पूरे होते ही कार चलने लगती है और चूहे जो दिशा चुनते हैं वह उस ओर चलती है। शोध में कई महीनों तक 16 चूहों को ट्रेनिंग दी गई है। 150 सेंटीमेंटीर के दायरे में उनका कारण प्रशिक्षण पूरा हुआ है।
बिहेवियरल ब्रेन रिसर्च जर्नल में प्रकाशित शोध के मुताबिक, प्रयोग के बाद चूहों के मल की जांच की गई। इसमें कॉर्टिकोस्टेरॉन और डीहाइड्रोपियनस्टेरॉन जैसे स्ट्रेस हॉर्मोन का स्तर कम मिला है। जब ट्रेनिंग के लिए इन्हें तैयार किया जा रहा है तो स्ट्रेस हार्मोन डीहाइड्रोपियनस्टेरॉन की स्तर बढ़ गया था।
साइंस डेस्क. पर्यावरण ऐक्टिविस्ट ग्रेटा थनबर्ग के नाम पर भौंरे जैसेदिखने वाले एक कीटका नाम रखा गया है। इस कीटकी खोज 1965 में हुई थी, लेकिन अब तक कोई नाम नहीं दिया गया था। पर्यावरण संरक्षण को लेकर ग्रेटा के योगदान को देखते हुए ऐसा किया गया है। कीड़े का नाम नेलोपटोड्स ग्रेटी रखा गया है। एंटोमोलॉजिस्ट जर्नल में प्रकाशित शोध के अनुसार,इस कीड़े की न तो आंख है और न ही पंख। यह 1 मिमी लंबा है।
कीटके सिर के पास लगे एंटीने पिगटेल्स जैसे दिखते हैं। नेचुरल हिस्ट्री म्यूजियम, लंदन के एक्सपर्ट के मुताबिक, ग्रेटा काफी निर्भीक हैं और दुनिया के सामने पर्यावरण संरक्षण अभियान पर बेबाक राय रखती हैं। उनका काम प्रशंसनीय है।
म्यूजियम के साइंटिफिक एसोसिएट डॉ. माइकल डर्बे का कहना है कि यह कीटलाखों जीवों के कलेक्शन के दौरान प्रकृतिविदडॉ.विलियम ब्लॉक को केन्या में मिला था। 1965 में मिले इस कीटको 1978 में नेचुरल हिस्ट्री म्यूजियम को डोनेट कर दिया गया था।
डॉ. डर्बे के मुताबिक, इसका नाम तय करने में 50 साल से ज्यादा का समय लग गया। इसकी प्रजाति के नाम में ग्रेटा का नाम जोड़ा गया है। यह कीड़ा टिलिएडी फैमिली का है,जिसे दुनिया के सबसे छोटे कीटोंवाला परिवार कहा जाता है। मेरी नजर इस पर तब पड़ी, जब मैं कलेक्शन का अध्ययन कर रहा था।
म्यूजियम के सीनियर क्यूरेटर डॉ मैक्स बार्कले का कहना है कि इस कीड़े का नाम रखना बेहद जरूरी था क्योंकि इसकी खोज को एक लंबा अर्सा गुजर चुका था। इसका नाम आज के समय के मुताबिक रखने के लिए भी ग्रेटा का नाम बेहतर लगा,क्योंकि वेपर्यावरण संरक्षण अभियान से जुड़ी हैं।
लाइफस्टाइल डेस्क. व्यस्तता के चलते घर की सजावट को आखिरी दिन के लिए छोड़ दिया था तो इन छोटी-छोटी चीजों के साथ आज ही अपनी सजावट पूरी कर सकते हैं...
जिन पेपर कप्स का उपयोग आप कप केक्स वगैरह बनाने के लिए करते हैं उनके तले पर क्रिसक्रॉस कट्स लगा लें। अब लाइट को इनके अंदर से निकालें। लाइन से रोशन पेपरकप्स लाइट पर लगे लैंपशेड्स की तरह दिखाई देते हैं।
घर की कोई दीवार अभी भी खाली लग रही है या बेरौनक लग रही है तो अपनी रंगबिरंगी\कांच की बैंगल्स लेकर उन्हें इस तरह से कलरफुल रिबन में डालकर, ऊपर से नॉट बांधकर वॉल हैंगिंग की तरह दीवार पर सजाया जा सकता है। घर को अलग ही लुक मिलेगा।
किचन में रखी एक्सट्रा कांच की बरनियों का भी उपयोग किया जा सकता है। बरनियों को कॉर्नर वाली टेबल पर रखकर इनके अंदर लाइट लगा दें। फिर ऊपर से ताजे गुलाब के फूल लगाकर फ्लावर वाज़ का लुक दें। लाइट वाले फ्लावर वाज़ बेहद आकर्षक लगेंगे।
हेल्थ डेस्क. त्योहार पर अलग-अलग तरह की मिठाइयां दुकानों पर मिलती हैं लेकिन पारंपरिक मिठाइयों का महत्व आज भी है। दिवाली पर बनने वाली पारंपरिक मिठाइयों का इतिहास क्या कहता है, जानिए फूड ब्लॉहगर मानसी पुजारा से...
मशहूर मिठाई है जो बेसन, सूजी और घी से बनती है। इसे बादाम की कतरन से सजाया जाता है। कहा जाता है कि एक वैद्य से ये लड्डू अकस्मात ही बन गए थे। वे अपने मरीजों को कड़वी औषधि खिलाने का तरीका खोज रहे थे, तभी उन्हें विचार आया कि बेसन की मीठी बूंदी के गोले बनाकर वे औषधि उन्हें खिला सकते हैं। दक्षिण भारत के लोग इन लड्डुओं को उन्हीं की खोज बताते हैं। इतिहास के पन्नों में नारियल से बने लड्डुओं का जिक्र गुप्त साम्राज्य में है। कहा ये भी जाता है कि अपनी संस्तिकृ में स्थाई जगह देने के लिए बिहार में चंद्रगुप्त मौर्य के राज्य में मोतीचूर के लड्डू बनना शुरू हो गए थे।
बेहद नर्म पारंपरिक मिठाई है, जिसे खोया और शक्कर से तैयार किया जाता है। ऊपर से इसमें इलायची और केसर भी डाला जाता है। इसे हर त्योहार पर देखा जा सकता है। उत्तर प्रदेश में सबसे पहले बनना शुरू हुए थे। पेड़े के कई प्रकार हैं। जैसे- लखनऊ का धारवाड़ पेड़ा मशहूर है। 1850 में लखनऊ के ठाकुर राम रतन सिंह जब धारवाड़ आए थे तब उन्होंने ही पहली बार पेड़ा बनवाया था। महाराष्ट्र का कांदी पेड़ा भी मशहूर है।
राजस्थान की मशहूर मिठाई है जो बेसन से बनती है और चाशनी में भीगती है। तीज पर खास बनाया जाता है। अब मकर संक्रांति पर भी बनाया जाता है। मलाई घेवर बहुत मशहूर हैं। इन्हें जयपुर में सबसे पहले बनाया गया था। पहले ये नई दुल्हन को खिलाए जाते थे।
बंगाल की कोई भी पूजा मालपुओं के बिना पूरी नहीं होती। मैदा, दूध, केला और नारियल के घोल से पुए तैयार किए जाते हैं फिर इन्हें तला जाता है और गर्म परोसा जाता है। बाहर से ये हल्केक्रिस्पी होते हैं, अंदर से नर्म होते हैं। बांग्लादेश और नेपाल में खूब पसंद किए जाते हैं। वैदिक काल में बनते थे। "अपूपा' नामक मिठाई से "मालपुआ' नाम पड़ा था। वैदिक काल के आर्यन ही "अपूपा' बनाया करते थे।
छेने से बने हल्के और नर्म रसगुल्ले मुंह में रखते ही घुल जाते हैं। बंगाल दावा करता है कि रसगुल्ले को पहली बार नबिन चंद्र दास ने 1868 में बनाया था। वहीं कहा जाता है कि उड़िया रसगुल्ला 12वीं सदी से भगवान जगन्नाथ को चढ़ रहा है। रसगुल्ला पर पश्चिम बंगाल और ओडिशा दोनों को जीआई टैग मिला है।
चने के आटे के नर्म छेने बनाकर ताजी मलाई और दूध में डुबो दिए जाते हैं। मीठे दूध में खीर की सामग्री के साथ बनते हैं। ताजी रसमलाई मुंह में घुल जाती है। इसे कहा तो बंगाल की मिठाई जाता है, लेकिन अभी यह केवल दावा ही है।
चाशनी में भीगी-लिपटी गोल जलेबी की बनावट अद्भुत होती है। मैदे को तलकर इसे तैयार किया जाता है फिर चाश्नी में भिगो दिया जाता है। 15वीं सदी में फारसी और तुर्की व्यापारी जलेबी जैसी ही कोई मिठाई भारत लेकर आए थे। इसे वे जलाबिया कहते थे। माना जाता है कि जलेबी इसी की नकल है।
शक्कर, बेसन, घी और दूध को मिलाकर हल्केक्रिस्पी और फ्लेकी टेक्सचर वाली पापड़ी तैयार की जाती है, जिसे सोन पापड़ी कहते हैं। इलायची की खुशबू वाली इस मिठाई को चौकोर काटा जाता है। यह उत्तर भारत में बेहद मशहूर है। राजस्थान, पंजाब, उत्तरप्रदेश और पश्चिम बंगाल इसे अपनी खोज बताते हैं।
खोया से बनाए गए गोलों को घी में तल कर गुलाब या केवड़े की खुशबू वाली चाशनी में डुबो दिया जाता है। इसे गर्म ही खाया जाता है। सबसे पहले मध्यकालीन भारत में बनाए गए थे। ये मिठाई भू-मध्यसागरीय देशों ओर ईरान से आई थी जहां इसे लुक़मत अल कादी कहते हैं। इतिहासकार ये भी मानते हैं कि शाहजहां के एक खास बावर्ची ने संयोग से इसे तैयार किया था।
चावल से बनी मिठाई जिसमें केसर और गुलाब जल की खुशबू होती है। काजू- बादाम-पिस्ता से सजाया जाता है। ये मलाईदार मिठाई भारत के हर कोने में मशहूर है और हर त्योहार पर लोग चाव से खाते हैं। हालांकि अभी तक ये स्पष्ट नहीं है कि फिरनी कहां से आई है, लेकिन कहते हैं कि इसे मुगल राज में सबसे पहले बनाया गया था। ये भी कहा जाता है कि ये मध्यपूर्वी देश की मिठाई है औैर वहीं से मुगल बादशाह इसे भारत लाए थे।
नई दिल्ली. ट्रैवल मीडिया कंपनी ‘लोनली प्लेनेट’ ने शुक्रवार को 2020 में दुनिया के बेहतरीन पर्यटक स्थलों की सर्वे रिपोर्ट जारी की। इसमें मध्य प्रदेश तीसरे नंबर पर है। इसे 5 पैमानों वन्यजीवन, ऐतिहासिक धरोहरों,तीर्थस्थलों, भवन निर्माण कला के नमूनोंऔर सबकी पसंद के खाने के लिहाज सेसबसे बेहतर माना गया। इंडोनेशिया का ईस्ट नुसा टेंगर पहले और हंगरी की राजधानी बुडापेस्ट दूसरे स्थान पर हैं।
इस लिस्ट में दुनिया के शहरों, राज्य और देशों को शामिल किया गया है। मध्य प्रदेश पर्यटन विभाग ने कहा कि अंतरराष्ट्रीय पर्यटकों की लिस्ट में तीसरे नंबर पर आना हमारे लिए गर्व की बात है। राज्य के पर्यटन के विकास में स्थानीय लोगों का पूरा सहयोग मिलता है। विभाग ने स्वास्थ्य समेत अन्य सेवाओं के क्षेत्र में नए अंतरराष्ट्रीय मानक स्थापित किए हैं।
नंबर | पर्यटन स्थल | देश |
1. | ईस्ट नुसा टेंगर | इंडोनेशिया |
2. | बुडापेस्ट | हंगरी |
3. | मध्य प्रदेश | भारत |
4. | बफेलो | अमेरिका |
5. | अजरबैजान |
पांच आधारों पर होता है बेहतरीन पर्यटन स्थलों का चुनाव
लोनली प्लेनेट दुनिया की नंबर एक ट्रैवल कंपनी है, जो 1973 से विश्व के बेहतरीन पर्यटक स्थलों की सूची तैयार कर रही है। हर साल कंपनी के एडिटर्स पांच आधारों पर रिसर्च करते हैं। कंपनी से संबंधित वॉलंटियर, स्थानीय लोगों और प्रभावशाली व्यक्तियों से बात करते हैं। इसके बाद कंपनी की एक न्यायिक समिति पर्यटक स्थलों को रेटिंग देती है।
नई दिल्ली.अब देश में ही जीन कुंडली बननासंभव हो गया है। इससे पता चल सकेगा कि भविष्य में आपको या आपकी संतानों को 1700 से ज्यादा किस्म की आनुवाांशिक बीमारियों में से कौन-सी बीमारी हो सकती है। यह भी जान सकेंगे कि एक ही बीमारी से पीड़ित दो अलग-अलग मरीजों में से किसके लिए कौन सी दवा ज्यादा असरदार होगी। जीन कुंडली बनाना दरअसल किसी व्यक्ति के जीनोम को सीक्वेंस कर लेना है। जीन सीक्वेंसिंग कराने के लिए अभी 70 लाख रुपए का खर्च आता है, लेकिन अब देश में करीब एक लाख रुपए में इसे कराया जा सकेगा। आने वाले दिनों में जब इसकी मांग बढ़ेगी तो जीन कुंडली बनवाने का खर्च और भी कम हो जाएगा।
काउंसिल ऑफ साइंटिफिक एंड इंडस्ट्रियल रिसर्च (सीएसआईआर) की हैदराबाद और दिल्ली की लैब ने छह महीने के भीतर देशभर से एकत्र किए गए 1008 नमूनों की जीनोम सीक्वेंसिंग पूरी कर ली है। सैंपल देने वाले सभी लोगों को सीएसआईआर की आईजीआईबी लैब ने इंडिजेन कार्ड भी जारी किया है।
इंडिजेन कार्ड में व्यक्ति का पूरा डेटा मौजूद
सबसे बड़ी उपलब्धि यह है कि लैब में समय सीमा के अंदर जीनोम सीक्वेंस करने में सफलता पाई है। अभी तक जीन सीक्वेंस तैयार करने में सालों लगते थे। इंडिजेन कार्ड में व्यक्ति विशेष के जीनोम का पूरा डेटा उपलब्ध है, जिसे एक विशेष एप व क्लीनिकल एक्सपर्ट की मदद से इस्तेमाल किया जा सकता है। इससे पता चल सकता है कि आनुवांशिक रूप से होने वाली बीमारियों में से किस बीमारी का जीन आपके शरीर में मौजूद है। यदि ऐसे व्यक्ति की शादी इसी किस्म के जीन वाले व्यक्ति से होती है, तो संतान को वह रोग हो सकता है। इसलिए विवाह तय करने या संतान की योजना बनाने में इंडिजेन कार्ड यानी जीन कुंडली उपयोगी साबित हो सकती है।
क्या होती है जीन कुंडली
किसी व्यक्ति की आंख, त्वचा, बालों के रंग, नाक व कान के आकार, आवाज, लंबाई जैसे सभी लक्षणों से लेकर बीमारियों का होना या न होना जीन से तय होता है। जीन हर प्राणी की कोशिका में होते हैं। शरीर की हरेक कोशिका में मौजूद 3.3 अरब जीन को सामूहिक रूप से जीनोम कहा जाता है। सभी जीन को क्रमबद्ध करना जीन कुंडली कहलाता है।
हर हफ्ते 600 सैंपल जांचे जाएंगे
दिल्ली व हैदराबाद की लैब में पायलट प्रोजेक्ट के तौर पर क्षमता का परीक्षण सफल रहा है। अब हर हफ्ते 600 सैंपल की जीनोम सीक्वेंसिंग हो सकेगी। सात निजी लैब ने भी इस दिशा में रुचि दिखाई है। आने वाले दिनों में जीन सीक्वेंसिंग और भी सस्ती दरों पर संभव होगी। -डॉ. हर्षवर्धन, केंद्रीय विज्ञान-प्रौद्योगिकी मंत्री
अयोध्या (आदित्य तिवारी). भगवान राम की नगरी अयोध्या दीपोत्सव के मुख्य कार्यक्रम के लिएसजधज कर तैयार है। राम केवनवास से लौटने की खुशी मेंप्रतीक के तौर पर शहर में 14 जगहों पर दीप जलाए जाएंगे। राम की पैड़ी पर 4 लाख दीप प्रज्ज्वलित कर गिनीज वर्ल्ड रिकॉर्ड बनाने की तैयारी है। बाकी दीप शहर के अन्य हिस्सों में जलाए जाएंगे। दीपोत्सव 23 अक्टूबर से चल रहा है, शनिवार कोकार्यक्रम का अंतिम दिन है।
मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ समेत कई मंत्री दीपोत्सव के मुख्य कार्यक्रम में शामिल होंगे। राज्य सरकार ने फिजी गणराज्य की उपसभापति और सांसद को भी समारोह में आमंत्रित किया है। अयोध्या में योगी 226 करोड़ की विकास परियोजनाओं का लोकार्पण एवं शिलान्यास भीकरेंगे।
राम की वापसी का दृश्यदर्शाया जाएगा
दीपोत्सव में लंका विजय के बाद राम की अयोध्या वापसी का सीन दृश्याया जाएगा। सिर्फ यही नहीं, दीपोत्सव में दीपों की लौ में भगवान राम के दर्शन भी कराए जाएंगे। अवध विश्वविद्यालय का दृश्य कला विभाग खास तैयारी कर रहा है। इस बार दीपों को सीधे न लगाकर ग्राफिक्स के जरिएघाटों पर सजाया जाएगा। इन्हीं ग्राफिक्स को देखने पर राम, सीता और हनुमान समेत अयोध्या के दर्शनीय स्थलों की आकृतियां नजर आएगी।
5 देशों के कलाकार करेंगे रामलीला
दीपोत्सव में भारत, नेपाल, श्रीलंका, इंडोनेशिया और फिलीपींस के कलाकार रामलीला का मंचन करेंगे। इसके साथ 22 सांस्कृतिक रथों को भी तैयार किया गया है। दीपोत्सव के प्रभारी आशीष मिश्र के मुताबिक, कार्यक्रम की तैयारी हो चुकी है। अयोध्या के 13 बड़े मंदिरों में तीन दिन (24 से 26 अक्टूबर) लगातार 5001 दीये जलाए जाएंगे।
आज दीपोत्सव का कार्यक्रम
लाइफस्टाइल डेस्क. ब्रिटिश वैज्ञानिकों ने ऐसा रोबोट तैयार किया है जो बगीचे से फूल तोड़ने और डालियों की छंटाई करने के लिए खुद रास्ता तलाश लेता है। वैज्ञानिकों ने इसे ट्रिमबॉट नाम दिया है। रोबोट में मैपिंग तकनीक का प्रयोग किया गया है जो आसपास की दिशाओं को बेहतर समझता है और सही दिशा में आगे बढ़ता है। इसमें कई तरह सेंसर और कटिंग टूल का प्रयोग किया जिसकी मदद से रोबोट पौधों की ट्रिमिंग करता है। रोबोट की फंडिंग यूरोपियन यूनियंस हॉरिजन 2020 प्रोग्राम ने की है।
वैज्ञानिक के मुताबिक, रोबोट में कम्प्यूटर विजन तकनीक का इस्तेमाल किया है जो इसे कम रोशनी और खराब मौसम में भी बगीचे तक पहुंचने में मदद करती है। वह आसानी से अपने लक्ष्य की ओर बढ़ पाता है।
ट्रिमबॉट में पांच जोड़े कैमरों के साथ फ्लैक्सिबल आर्म लगाई गई है इसकी मदद से रोबोट कम जगह में आसानी से मूवमेंट करता है और डालियों से फूल तोड़ने के साथ ट्रिमिंग कर पाता है। इसे इलेक्ट्रॉनिक कंपनी बॉश ने तैयार किया है।
इंफॉर्मेटिक्स एक्सपर्ट बॉब फिशर के मुताबिक, रोबोट में कोडेड एल्गोरिदिम उसे यह बताती है कि कहां झाड़ियों का आकार जरूरत से ज्यादा बढ़ गया है और ट्रिमिंग करनी है। उसे कैसे आदर्श आकार में कैसे लाना है। फूल को कैसे और कितना तोड़ना है कि पेड़ के बाकी हिस्से को नुकसान न पहुंचे।
रोबोट को तैयार करने की वाली एडिनबर्ग यूनिवर्सिटी की टीम के मुताबिक, ट्रिमबॉट का एक प्रोटोटाइप तैयार किया है। यह ग्रीन बेल्ट को खूबसूरत बनाने के साथ किसानों की मदद करेगा। ऐसे लोग जिन्हें चलने-फिरने में समस्या है उनके लिए भी बगीचे की देखभाल करना आसान होगा।
निमोनिया बीमारी सुनने में तो आम-सी लगती है लेकिन सही समय पर इसका इलाज न मिलने पर ये बीमारी जानलेवा भी साबित हो सकती है। इस बीमारी का सबसे ज्यादा खतरा बच्चों और वृद्ध व्यक्तियों में होता है। ये सांस से जुड़ी एक गंभीर बीमारी है, जिसमें फेफड़ों (लंग्स) में इन्फेक्शन हो जाता है। अगर इसके लक्षण की बात करें तो आमतौर पर बुखार या जुकाम होने के बाद निमोनिया होता है। लेकिन कई बार यह खतरनाक भी साबित हो सकता है, खासकर 5 साल से छोटे बच्चों और 60 साल से ज्यादा उम्र के लोगों में क्योंकि उनकी इम्युनिटी कम होती है। एक आंकड़े के मुताबिक दुनिया भर में होने वाली बच्चों की मौत में 18 फीसदी मौत निमोनिया की वजह से होती है।
इस गंभीर समस्या की गहराई को समझते हुए नीदरलैंड्स और स्वास्थ्य प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में अग्रणी रॉयल फिलिप्स की सहायक कंपनी, फिलिप्स इंडिया ने आज भारत में बचपन में निमोनिया के बारे में जागरूकता बढ़ाने के लिए एक सीएसआर अभियान 'हर सांस में जिंदगी ’ की शुरुआत की है।
इस अभियान का उद्देश्य बच्चों के माता-पिता और परिवार तक पहुँचना है और बचपन में निमोनिया की गंभीरता पर उन्हें संवेदनशील बनाना है। निमोनिया 5 वर्ष की आयु तक के बच्चों में फैलाने वाले प्रमुख संक्रामक रोगों में से एक है, जो शिशुओं की मृत्यु का एक प्रमुख कारण भी है।
निमोनिया की बीमारी और उससे होने वाली मृत्यु, दोनों ही मामलों में विश्व स्तर पर भारत में सबसे अधिक मामले पाये जाते हैं। हर साल 30 मिलियन नए मामलों के साथ लगभग 1.5 लाख बच्चे निमोनिया के कारण अपनी जान गंवाते हैं। निमोनिया भारत में होने वाली सभी मृत्यु में लगभग छठे स्थान यानी 15% के स्तर पर है जिसमें अधिकतर मामले पांच साल से कम उम्र के बच्चों के होते है। इस बीमारी के कारण हर चार मिनट में एक बच्चा अपनी जान गवां देता है।
एक संक्रमित रोग होने के कारण इसका समय पर इलाज़ करवाना आवश्यक हो जाता है। हालांकि, यह देश में अंडर-एडेड, अंडर-डायग्नोस्ड और अंडर-फंडेड है। संयुक्त राष्ट्र सतत विकास लक्ष्य # 3 के तहत फिलिप्स इंडिया इस बीमारी के योगदान के रूप में एक जागरूक अभियान चला रहा है। इसके फलस्वरूप बचपन में निमोनिया के कारण होने वाली मृत्यु को कम करने में मदद करने के लिए, फिलिप्स इंडिया जागरूकता और इस बीमारी की रोकथाम के लिए प्रतिबद्ध है। इस अभियान के माध्यम से, फिलिप्स इंडिया का उद्देश्य शहरी और ग्रामीण दोनों क्षेत्रों पर ध्यान केंद्रित करना है। जिसके लिए फिलिप्स अपने CSR अभियान 'हर सांस में जिंदगी ’ को टीवी, रेडियो, प्रिंट, डिजिटल, सोशल मीडिया चैनल और ऑन-ग्राउंड जैसे कई माध्यमों की मदद से कई लोगों के बीच जागरुकता फैला रहा है।
फिलिप्स इंडियन सबकॉन्टिनेंट के वाइस चेयरमैन और मैनेजिंग डायरेक्टर, डैनियल मजॉन ने इस अभियान के बारे में बताते हुए कहा, “5 साल से कम उम्र के बच्चों में निमोनिया को रोकने की कुंजी जोखिम की पहचान कर रही है और इसके निदान और उपचार के लिए माता-पिता और देखभाल करने वालों को शिक्षित कर रही है। फिलिप्स बच्चों में निमोनिया के मामलों को कम करने और इस राष्ट्रव्यापी जागरूकता अभियान के माध्यम से भारत में इसके बोझ को कम करने में योगदान करने के लिए तत्पर है। ”
फिलिप्स इंडिया द्वारा लोगों के स्वास्थ्य में सुधार और स्वस्थ रहने और रोकथाम, निदान और उपचार से स्वास्थ्य निरंतरता में बेहतर परिणामों को सक्षम करने के लिए काम किया जा रहा है। ब्रांड के इस प्रतिबद्धता के एक हिस्से के रूप में, कंपनी का उद्देश्य सामाजिक मुद्दों को एक फोकस के साथ संबोधित करना है, जिससे स्वास्थ्य सेवा सुलभ और सस्ती हो। इस तरह फिलिप्स इंडिया का ये अभियान न केवल लोगों को इस बीमारी के बारे में जागरूक करेगा बल्कि बच्चों के स्वास्थ्य को बेहतर बनाने में भी सहयोग करेगा।
फेस्टिवलसीजन ने दस्तक दे दी है और लोगों ने तो त्योहारों को मनाने के लिए तैयारियाँ भी करनी शुरू कर दी हैं। नवरात्रि, दशहरा, करवाचौथ और दीवाली जैसे कई त्योहार न केवल बाज़ार में रौनक लाते हैं बल्कि घर की खुशियों में भी चार- चाँद लगते हैं। ऐसे में लोग न केवल नए कपड़े खरीदते हैं बल्कि अपने घर को भी बड़े चाव से सजाते हैं।
इस आधुनिक दौर में हर साल फैशन की तरह डैकोरेशन के भी ट्रेंड बदलते जा रहे हैं। ऐसे में लोग आजकल डिज़ाइनर दीवारों और स्टायलिश लाइटनिंग का सहारा ले रहें हैं। खासकर जब बात हो रोशनी के त्योहार दिवाली की तो हर कोई चाहता है की उसका घर रोशनी से जगमगाता रहे। ऐसे में लाइट्स और इलेक्ट्रिक समानों का अच्छा होना बहुत जरूरी है ताकि फेस्टिव सीजन में आपकी खुशियों की चमक कम न पड़े। इसलिए हमेशा अच्छी क्वालिटी की इलेक्ट्रॉनिक प्रोडक्ट्स का इस्तेमाल करना चाहिए जो सेफ होने के साथ लंबे समय तक चलें। इसलिए अधिकतर लोगों का भरोसाहैवेल्सप्रोडक्ट्स पर है जिसकी कई तरह की डिज़ाइनर लाइटनिंगप्रोडक्ट्सन केवल त्योहारों की रौनक बढ़ती हैं बल्कि आपके घर को एकनयाव ट्रेंडी लुक भी देतीं हैं। इन लाइट्स की मदद से आप अपनी जरूरत व पसंद के हिसाब से बैडरूम,ड्राइंग रूम,लिविंग रूम और घर के अलग-अलग कोनों को सजा सकते हैं।
फेस्टिवसीजन में हम अपने घर को तो सज़ा लेते हैं लेकिन कई बार घर केअहमहिस्से यानी किचन को भूल जाते हैं।फेस्टिवसीजन में लोग तरह-तरह के पकवान बनाना घर में ही पसंद करते हैं इसके लिए वो पहले से ही घर व किचन की साफ-सफाई में जुट जाते हैं। यह माना जाता है कि आपका किचन साफ है तो आपका स्वास्थ भी अच्छा ही रहेगा। ऐसे में हर महिला रसोई और वहाँ काम आने वाले प्रोडक्ट्स का ज्यादा ध्यान रखती है। ऐसे में अगर आप भी अपने किचन को एकनयालुक देने की सोच रही हैं तो मौक़ा इसफेस्टिवसीजन को और बेहतर बनाने काहैवेल्सके स्मार्ट किचनएप्लायंसके साथ। जो न केवल आपकेफेस्टिवसीजन को बेहतर करेंगें बल्कि आपके किचन को देंगे एक स्मार्ट लुक भी।
त्योहार मेंमाहौलमें घर में मेहमानों की भीड़-भाड़ लाजमी में ऐसे में मेहमानों के लिए पकवान और खाना बनाना एक बड़ा ही मुश्किल काम हो जाता है। लेकिन अगर आपके पास स्मार्ट व आधुनिक किचन प्रोडक्ट्स हो तो वो आपके काम को काफी हद तक सरल बना देते हैं जिससे कम समय में आप लजीज खाना बना सकते हैं।
त्योहार में लोग अक्सर एक दूसरे को गिफ्ट देते हैं ताकि वो लोगों की खुशियों को और भी बढ़ा दें। ऐसे मेंहैवेल्सकिचन एप्लाइंसेज गिफ्ट के रूप में लोगों की पहली पसंद बन चुकी है जिसके प्रॉडक्ट्स की क्वालिटी अन्य ब्रांड्स की तुलना में बेहतर होती है । कस्टमर्स के इन्हीं भरोसे कीबदौलतहैवेल्सनए- नए प्रोडक्ट्स की रेंज लाता है जो आपकी त्योहारों की तैयारी में चार- चाँद लगा देता है।
लाइफस्टाइल डेस्क. स्वस्थ रखने में जितना खानपानअहम है उतना ही जरूरी है बर्तन। जिसे अक्सर नजरअंदाज किया जाता है। अलग-अलग धातुओं के बर्तनों के फायदे भी अलग हैं। जब इनमें खाना पकाया या रखकर खाया जाता है तो धातु का असर पूरे शरीर पर होता है। जैसे मिट्टी के बर्तन में रखा पानी पीने पर शरीर लंबे समय ठंडा रहता है और तांबे के बर्तन में रखा पानी पेट को फायदा पहुंचाता है। इस दिवाली खरीदारी करते समय ध्यान रखें कि किस धातु का बर्तन खरीद रहे हैं। राष्ट्रीय आयुर्वेद संस्थान, जयपुर के आयुर्वेद विषेशज्ञ डॉ. अजय साहू और डॉ. हरीश भाकुनी बता रहे हैं अलग-अलग धातुओं के बर्तन के फायदे....
क्यों जरूरी : तांबे के बर्तनों का हिंदू धर्म में भी काफी महत्व है। आयुर्वेद के मुताबिक, तांबा शरीर के वात, कफ और पित्त दोष को संतुलित करता है। यह धातु पानी को शुद्ध करती है और बैक्टीरिया को खत्म करती है। यह शरीर से फैट और विषैले तत्वों को दूर करने के साथ शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने का काम करता है। तांबे के बर्तन में रखा पानी पेट, किडनी और लिवर के लिए खास फायदेमंद है। साथ ही यह वजन नियंत्रित करने में मदद करता है। इसका पूरा उठाने के लिए कम से कम तांबे के बर्तन में 8 घंटे तक पानी रखने के बाद ही पीएं।
ध्यान रखें :तांबे के बर्तन में दूध कभी ना पिएं और न ही रखें। इसकी प्रकृति दूध को विषैला बना देती है।
क्यों जरूरी : इस धातु का सम्बंध दिमाग से है और शरीर के पित्त को नियंत्रित करती है। खासकर छोटे बच्चों का दिमाग तेज करने के लिए चांदी के बर्तन में भोजन या पानी दिया जाता है। इसकी प्रकृति शरीर को ठंडा रखती है। चांदी के बर्तन रखकर भोजन खाने से तन और मन स्थित और शांत होता है। ऐसे लोग जो संवाद करते हैं या किसी अध्ययन से जुड़े हैँ वे चांदी के बर्तन का इस्तेमाल कर सकते हैं। यह धातु 100 फीसदी बैक्टीरिया फ्री होती है इसलिए इंफेक्शन भी बचाती है। चांदी के बर्तन इम्युनिटी बढ़ाकर मौसमी बीमारियों से भी बचाते हैं।
ध्यान रखें - चांदी के बर्तन में खाने के कोई नुकसान नहीं हैं।
सोने के बर्तनों में हमेशा ही राजा-महाराजा या बेहद अमीर लोग खाना खाते आएं हैं। सोने से बने बर्तन वाजी करण का काम करते हैं यानी ये स्पर्म काउंट बढ़ाते हैं। इसलिए इस धातु का इस्तेमाल पुराने जमाने में भी बेहद कम लोग किया करते थे। चांदी के उलट ये एक गर्म धातु हैं। इससे बने बर्तनों में खाना खाने से शरीर मजबूत बनता है। ये शरीर को आंत्रिक और बाहरी हिस्सों को बलवान बनाता है। इसके अलावा ये आंखों की रोशनी भी बढ़ाता है।
क्यों जरूरी : काफी समय से खाना बनाने में लोहे की कढ़ाही का प्रयोग किया जा जाता रहा है क्योंकि यह आसानी से उपलब्ध होता है और आयरन की कमी पूरी करता है। लोहे की कढ़ाही में बना खाना खासतौर पर महिलाओं को खाना चाहिए क्योंकि आयरन की कमी के मामले इनमें अधिक देखे जाते हैं। हरी सब्जियां लोहे के बर्तनों में ही पकानी चाहिए। इसमें तैयार खाना शरीर का पीलापन और सूजन दूर करता है। लोहे के बर्तनों में रखकर दूध पीना फायदेमंद है।
ध्यान रखें : इसमें खाना बनाएं लेकिन खाने के लिए लोहे के बर्तनों का प्रयोग न करें।
स्टील के बर्तन हर घर में दिख जाएंगे। ग्लास, चम्मच, थाली, कटोरी से लेकर खाना पकाने के लिए भी अब स्टील के बर्तन बाजार में मौजूद हैं। आज कल स्टेनेलेस स्टील भी आसानी से नजर आ जाते हैं। कई लोगों को लगता है कि स्टील के बर्तन का उपयोग ठीक नहीं होता है लेकिन यहां हम आपको बता दें कि स्टील के बर्तन में खाना खाना या पकाना ना फायदेमंद होता है और ना ही नुकसानदायक होता है। लेकिन कई लोग इनका इस्तेमाल कम कर रहे हैं।
एल्यूमिनियम धातु से बने बर्तन खाना खाने और पकाने दोनों के लिए ठीक नहीं होते हैं। दरअसल ये बोक्साईट का बना होता है। इसमें बने खाने से शरीर को सिर्फ नुकसान होता है। इसमें पका खाना अपने पोषण तत्व खो देता है। खाने में मौजूद आयरन, कैल्शियम जैसे तत्व खत्म हो जाते हैं। जिससे हड्डियां कमजोर होने लगती हैं। इसके अलावा मानसिक बीमारियां भी होती हैं। इसके अलावा अस्थामा, शुगर जैसी बीमारियां भी होने का खतरा बना रहता है। एल्यूमिनियम शरीर को कई तरह से नुकसान पहुंचाता है। इसलिए अंग्रेज अपने कैदियों को इसी बने बर्तनों में खाना परोसा करते थे।
मिट्टी में एंटी एलर्जी तत्व होते हैं। ये सीक्रीशन का काम भी बेहत अच्छे से करती है। अम्लपित्त यानी पेट के रोगियों के लिए मिट्टी के बर्तन में खाना पकाना बेहद फायदेमंद होता है। मिट्टी के बर्तन में खाना पकाने से इसके पोषक तत्व खत्म नहीं होते हैं। ये खाद्य पदार्थों को पौष्टिक बनाए रखने में मदद करता है। लेकिन आज कल अच्छी मिट्टी के बर्तन मुश्किल से मिलते हैं। कई बार मिट्टी के बर्तनों को खूबसूरत बनाने के लिए इसमें पेंट कर दिया जता है। कई बार इसमें चिकनी मिट्टी की मिलावट कर दी जाती है। जिससे ये दूषित हो जाती है। इसलिए आप मिट्टी के बर्तन खरीदते वक्त ध्यान रखें कि मिट्टी का बर्तन अच्छी मिट्टी से बना हुआ हो।
बढ़ती बीमारियों के चलते लोग एक बार फिर मिट्टी के बर्तनों की तरफ लौट रहे हैं। मिट्टी के बर्तन में स्त्राव रोधक तत्व होते हैं, इसलिए ये अम्लपित्त होता है। इससे बने बर्तनों में खाना पकाने से रक्त प्रदर (महावारी) या नाक से खून आना जैसी समस्याओं से राहत मिलती है।
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