कहानी : अनुकम्पा
लेखक : मो. अशरफ
रतन के घर में दाख़िल होते ही हमेशा की तरह पिता माखन बाबू की चिक-चिक उसके कानों में पड़ी- ‘सारा दिन आवारागर्दी करना और घर आकर मुफ़्त की रोटी तोड़ना, बस यही काम रह गया है तुम्हारे जीवन में! कुछ तो सीखो अपने बड़े भाई से।’
रतन ने अपने बड़े भाई सुजीत की ओर देखा, उसके चेहरे के भाव भी रतन को दुत्कार ही रहे थे। बग़ैर कोई प्रतिक्रिया दिए रतन अपने कमरे में चला गया। ये इस घर का रोज़ का नाटक था। रतन चाहे देर आए या सवेर, माखन बाबू उसके ही इंतज़ार में बैठे रहते थे।
उसे खरी-खोटी सुनाते, फिर रतन अपने कमरे में और सब लोग अपने-अपने काम में लग जाते। फिर उसकी मां कमला चुपके से उसका खाना उसके कमरे में दे जातीं। अगले दिन फिर वही दिनचर्या। सुबह-सुबह सुजीत का दुकान के लिए निकल जाना, फिर माखन बाबू का ऑफिस के लिए, और निकलते वक़्त कमला को दो खरी-खोटी सुनाकर जाना।
एक दिन सुबह-सुबह मूसलधार बारिश हो रही थी और गली में बिजली के खंभे पर अब तक लाइट जलती देख माखन बाबू भुनभुनाते हुए बिना चप्पल-छाता के निकल गए, ‘अगर एक दिन भी मैं ये लाइट बंद न करूं तो सारा दिन जलती ही रहेगी। ऐसा लगता है, मोहल्ले में सिर्फ़ मैं ही रहता हूं।’
उन्होंने बिजली बंद करने की कोशिश की, परंतु बारिश की वजह से कहीं से करंट आ रहा था, लाइट तो नहीं बुझी, माखन बाबू हमेशा-हमेशा के लिए बुझ गए। उनका असमय काल के गाल में समाना सबको एक बड़ी विपदा दे गया।
सरकारी नौकरी में रहते हुए गुज़रने के कारण अनुकम्पा नियुक्ति तो दोनों भाइयों में से किसी एक को मिलनी ही थी। परंतु पेंच फंसा कि किसे मिले, क्योंकि नौकरी की सारी योग्यता दोनों ही भाई पूरी कर रहे थे। रतन ने तो पहले ही यह कहकर मना कर दिया कि भैया बड़े हैं, समझदार हैं, उन्हें ही करने दो।
फिर बात उठी कि सुजीत ने नौकरी की तो दुकान कौन संभालेगा? काफी सोच-विचार के बाद कमला की ज़िद पर यह फ़ैसला हुआ कि नौकरी रतन को, दुकान सुजीत को और माखन बाबू को मिलने वाला रिटायरमेंट का पैसा और मां को मिलने वाली पेंशन भी सुजीत को।
समय के साथ माखन बाबू वाला सारा भार रतन ने ले लिया। अपने जीवन के लिए अब उसके पास न तो समय बचता था और न ही पैसा। माखन बाबू के रहते हुए कुछ खरी-खोटी के बाद ही सही उसे पॉकेट ख़र्च मिल भी जाया करता था पर अब तो उतना भी नहीं।
तनख़्वाह मिलते ही वह सिर्फ़ आने-जाने का बस किराया अपने पास रखकर सारा पैसा मां को दे देता, कभी ज़रूरत पड़ती तो उन्हीं से मांग लेता। कमला अपने हिसाब से घर चलाती थीं, महीना ख़त्म होते-होते उनके पास कुछ भी नहीं बचता था, वह चाहकर भी रतन को अलग से कुछ पैसे नहीं दे पाती थीं।
इधर सुजीत दुकान से हुई आमदनी पहले भी ख़ुद ही रखता था, अब भी रख रहा था, मां की पेंशन के पैसे भी उसे अलग से मिलते थे। हंसी-मज़ाक़ करने वाला रतन हंसना भूल चुका था। कोई कह नहीं सकता था, यह वही रतन है जो देर रात को घर आता था और सुबह पिताजी के जाने के बाद सोकर उठता था।
समय के साथ सुजीत की शादी भी हो गई। एक पिता की तरह पूरी ज़िम्मेदारी के साथ रतन ने सुजीत की शादी करवाई। ऐसा लग रहा था मानो बड़ा भाई सुजीत नहीं रतन है। शादी के सारे मेहमान जा चुके थे, बस रमा रह गई थी। रात में पूरा परिवार साथ ही खाना खा रहा था, तभी रमा ने रतन से कहा, ‘अब बस तुम्हारी बारी है, कोई लड़की देख रखी है या वो भी हमें ही ढूंढनी होगी?’
‘अरे नहीं दीदी, अभी इतनी जल्दी कहां, अभी-अभी तो भैया की शादी हुई है।’ रतन ने शर्माते हुए कहा।
‘क्यूं? तुम्हें तो चुटकी में लड़की मिल जाएगी, बस तुम हां तो करो, पिताजी वाली सरकारी नौकरी है भाई, कौन नहीं देगा अपनी लड़की। कुछ भी कहो, फ़ायदा तो रतन को ही हुआ है, बग़ैर किसी मेहनत के सरकारी नौकरी मिल गई। वैसे ये हक़ तो सुजीत भैया का बनता था।’ रमा कुछ सोचे बिना ही बोल गई।
‘मैंने तो कहा ही था भैया को करने दो, पर मां की ही ज़िद थी।’ रतन ने संक्षिप्त में उत्तर दिया।
‘हां भाई! मां के तो तुम्हीं लाड़ले हो, बाक़ी हम दोनों भाई-बहन तो बस ऐसे ही हैं।’ इस बार रमा ने तंज़ कसा। ‘पर सुजीत भैया को एक नहीं तीन-तीन फ़ायदे हुए हैं। एक- पिताजी द्वारा करवाई दुकान, दूसरा- उनके रिटायरमेंंट के पैसे और तीसरा-पेंशन, बस मुझे ही कुछ नहीं मिला।’ रमा ने फिर छेड़ा।
‘सबकी मुझ पर ही नज़र है, इसे जो नौकरी मिली इसका क्या?’ सुजीत ने तेज़ आवाज़ में कहा। घर में आई नई-नवेली दुल्हन चुपचाप सब सुन रही थी।
‘नौकरी मिली तो क्या, निभा तो रहा हूं सबको, दिन-रात पिताजी वाली नौकरी, पिताजी वाली नौकरी सुन-सुनकर मेरा दिमाग़ ख़राब हो गया है। नौकरी तो मिल गई परंतु बदले में मेरी सुख-शांति सब ख़त्म हो गई है। ख़ुद के लिए पैसे तो दूर, समय तक नहीं बचता है। रमा दीदी की शादी का लोन अब तक चल रहा है।’ रतन ने ग़ुस्से में कहा।
‘अब पिताजी वाली नौकरी तुम्हें मिली है तो तुमको ही करना पड़ेगा।’ रमा ने बग़ैर किसी अफ़सोस के कहा।
‘तो फिर मुझे क्या मिला दीदी? सबको लगता है कि पिताजी वाली नौकरी मिल गई है, पर फिर सब पिताजी वाली उम्मीद भी तो लगाए बैठे रहते हैं, अपने लिए तो कुछ भी नहीं बचता है मेरे पास। इतना कुछ करने के बाद भी अगर आप लोगों को लगता है कि आप लोगों के साथ ग़लत हुआ है और मेरेे नौकरी छोड़ देने से सब ठीक हो जाएगा तो मैं ये नौकरी छोड़ने को तैयार हूं।’
‘नौकरी छोड़ दोगे तो घर कैसे चलेगा?’ रमा ने पूछा।
‘मां के पेंशन के पैसे हैं न... मां भैया के साथ रह जाएगी... मैं ख़ुद के लिए कुछ न कुछ कर लूंगा, इन सब झंझटों से कहीं दूर चला जाऊंगा।’ रतन ने अपनी बात रखी।
‘सबके हिस्से के पैसे मारकर रखे हों तो हम सब तो झंझट ही लगेंगे न!’ सुजीत ने ताना मारा। इतना सुनना था कि रतन खाना छोड़ अपने कमरे में चला गया।
‘अगर नौकरी छोड़ देगा तो लोन के पैसे कौन भरेगा?’ रतन के जाने के बाद सुजीत ने सबके बीच अपना सवाल रखा।
‘क्यों? तुम्हारी कोई ज़िम्मेदारी नहीं बनती है?’ कमला ने गु़ुस्से से पूछा। ‘तेरे पिताजी ने तुम्हें दुकान करके दी, उनके रिटायरमेंट के पैसेे तुम्हें मिले, मेरी पेंशन के सारे पैसे तुम्हें मिलते हैं, तुम्हारी भी तो ज़िम्मेदारी बनती है कि अपनी बहन के लिए कुछ करो।
तुम्हारी शादी हुई, एक पैसा नहीं मांगा तुमसे, कल को तुम्हारा परिवार बढ़ेगा, अगर घर के ख़र्च में तुम हाथ नहीं बंटाओगे तो इस तरह से कैसे चलेगा!’ कमला का ग़ुस्सा जारी था। उन्होंने रतन का खाना उठाया और उसके कमरे में चली गई । ‘उठ, खा ले,’ कमला ने रतन के सर को सहलाते हुए कहा।
‘आज पिताजी की बहुत याद आ रही मां।’ रतन अपनी सिसकियां दबाते हुए बोला, "अब समझ में आता है कि पिताजी हमेशा ग़ुस्से में क्यों रहते थे। वह तो अपना सारा ग़ुस्सा मुझ पर निकाल लेते थे पर मैं तो सबसे छोटा हूं, मैं अपना ग़ुस्सा किस पर निकालूं?'
‘तुम्हें ग़ुस्सा करना है न, मुझ पर कर लिया कर। तेरे पिताजी के ग़ुस्से की मुझे तो आदत हो गई थी, मेरे ऊपर ग़ुुस्सा करेगा तो लगेगा तेरे पिताजी अब भी मेरे आस-पास हैं। चल उठ, खाना खा ले।’ कमला की आंखें भी डबडबा गईं।
‘आप पर क्या ग़ुस्सा करना मां, आप कहती थीं न कि मैं तो आपका बोनस बेटा हूं, आपने तो बस दो बच्चों का ही सोचा था, पिताजी की ज़िद पर मैं इस दुनिया में आया। याद है, बचपन में हमेशा आप पापा से कहती थीं कि सुजीत के लिए अच्छी क़िस्म का कपड़ा लाइएगा, कपड़े अच्छे होंगे तो ज़्यादा दिन चलेंगे ताकि वही कपड़े सुजीत को छोटे होने पर रतन भी पहन सके।’
हर साल भैया की स्कूल ड्रेस, उनकी किताबें, बैग, उनकी छोड़ी हुई हर पुरानी चीज़ मुझे थमा दी जाती थी। भैया के लिए सब नया आता था, मेरे लिए कभी कुछ नया नहीं आया मां, किसी ने कभी पूछा तक नहीं कि तुम्हें भी कुछ चाहिए।
सारा प्यार, सारा दुलार तो सुजीत भैया के लिए था, मेरे हिस्से में तो कभी कुछ आया ही नहीं। उनके कपड़ों में भी मैं कभी फिट नहीं बैठा, वो ठहरे मोटे गोल-मटोल और मैं दुबला-पतला, फिर भी मुझे वो कपड़े पहनने पड़ते थे। मैं तो कहीं पर था ही नहीं मां, फिर ये नौकरी मेरे हिस्से कैसे आ गई और क्यों आ गई?
ये भी भैया को दे देतीं। सिर्फ़ नौकरी नहीं, मेरा बचपन और अब ये मेरा जीवन भी अनुकम्पा पर ही गुज़र रहा है। मैं आज भी इस घर में फिट नहीं बैठ रहा हूं, आप ही कुछ रास्ता बताओ मां।’
रतन की बातों ने कमला को एकदम नि:शब्द कर डाला, गहरी सांस लेते हुये बोलीं, ‘उठ खाना खा ले, रमा के जाने से पहले मैं कोई रास्ता निकालती हूं।’ उनकी आवाज़ भर्रा चली थी। कमला की नींद ग़ायब थी। आज वो सब सुना जिस पर उनका कभी ध्यान ही नहीं गया।
बचपन से लेकर आज तक इतना कुछ इसके अंदर भरा पड़ा था, बेरोज़गारी में और इनके हमेशा डांटते रहने पर भी यह नहीं टूटा पर घर के हालात ने इसे तोड़ दिया। कुछ तो हल निकालना होगा, वरना यह दशा भयावह रूप ले लेगी।
सुबह पूरा परिवार फिर साथ में नाश्ता कर रहा था। रात की घटना की वजह से माहौल एकदम शांत था। कमला ने चुप्पी तोड़ते हुए कहा, ‘बहुत सोचने के बाद मैंने कुछ फ़ैसला किया है...’ उन्होंने बात अधूरी छोड़ दी इस उम्मीद में कि कोई प्रतिप्रश्न करेगा, पर किसी ने कोई सवाल नहीं किया।
वह पूरी दृढ़ता से बोलीं, ‘मैंने फ़ैसला किया है कि रमा की शादी के लोन का भुगतान मेरी पेंशन के पैसों से होगा और घर का आधा ख़र्च सुजीत और आधा रतन उठाएगा।’ फिर थोड़ा रुककर कहा, ‘अगर किसी को कोई परेशानी है तो अभी ही खुलकर कह दे।’
सब ख़ामोशी से नाश्ता कर रहे थे, किसी ने कुछ नहीं कहा। शायद किसी को कोई परेशानी नहीं थी, शायद...!
लघुकथा : बचाव
लेखिका : अदिति कंसल
दोषी होने के लिए किसी ख़ास वर्ग या हैसियत की ज़रूरत नहीं होती।
‘अरे दूर रख अपने बच्चे को। जब इतनी ज़ोर से खांस-छींक रहा है तो क्यों लाई साथ। देख मेरे सन्नी की नाक भी बहने लगी। तुम अनपढ़ों की यही दिक़क़त है।
जानती नहीं आजकल कोरोना वायरस फैला हुआ है। बचाव ही इसका इलाज है। तेरे बच्चे के कारण मेरे सन्नी को भी कहीं कोरोना का संक्रमण न हो गया हो!’
ऑफिस से वापस आते ही पर्स सोफे पर धरती हुई मिसेज भल्ला अपनी नौकरानी पर टूट पड़ीं।
‘क्या करूं मालकिन, बच्चे को कहां छोड़कर आती। वह भी रोज़ दिहाड़ी लगाने जाते हैं। माफ़ कर दो मालकिन।
मेरे बच्चे के कारण सन्नी की तबीयत भी ख़राब हो गई। मालकिन मैं तो ग़रीब हूं। मेरे बच्चे का भी इलाज करवा दो तो बड़ी मेहरबानी होगी।’
‘रुक जा, अभी सन्नी के पापा को फोन करती हूं, दोनों को अस्पताल ले जाएंगे।’
अस्पताल में दोनों बच्चों की जांच की गई। रिपोर्ट आई, तो सन्नी को करोना से संक्रमित पाया गया तथा नौकरानी के बच्चे का टेस्ट नेगेटिव आया।
‘आप ठीक कह रही थीं मालकिन। अब मैं अपने बेटे को किसी के घर नहीं ले जाऊंगी। सचमुच, बचाव में ही इलाज है। सन्नी का ख़्याल रखना मालकिन।’ कहते-कहते नौकरानी अपने बेटे को गोद में समेटे हुए चल दी।
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