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ऐसी कई महिलाएं हैं जिनके लिए साड़ी पहनकर चलना, उठना, बैठना या काम करना मुश्किल होता है। लेकिन साड़ी पहनकर डांस जैसे कठिन काम को एक महिला ने बखूबी कर दिखाया है। सोशल मीडिया पर इसका वीडियो वायरल हो रहा है जिसकी लोग खूब तारीफ कर रहे हैं।
डांस करने वाली महिला का नाम पारुल अरोड़ा है। उसने साड़ी में बेहतरीन फ्लिप फ्लॉप डांस किया। इसके डांस का वीडियो देखकर लोगों को हैरानी हो रही है।
कई लोग इस वीडियो को फेक मान रहे थे। लेकिन जब ये पता चला कि पारुल एक नेशनल लेवल गोल्ड मेडलिस्ट जिमनास्ट है तो यकीन हुआ कि वे इस लैंडिंग को कर सकती हैं। इस वीडियो को अब तक 4000 व्यूज मिले हैं। इसे 27,000 से ज्यादा लोग देख चुके हैं।
पारुल के साथ-साथ इस वीडियो में जो लड़का है, वो भी अपने स्टंट्स के लिए मशहूर है। ट्विटर पर इस लड़के की प्रोफाइल माइकल होशियार सिंह के नाम से है और उसने भी कुछ ज़बरदस्त स्टंट किये हैं।
सोशल मीडिया पर इस वीडियो के वायरल होते ही पारुल को तरह-तरह के कमेंट्स मिल रहे हैं। कोई उन्हें डेयरडेविल कह रहा है तो एक महिला ने यह भी कहा कि मैं तो साड़ी पहनकर चल भी नहीं सकती।
एक महिला ने कहा जब मैंने पहली बार साड़ी पहनी थी तो बीस मिनट तक चलने की प्रैक्टिस की थी। तब कहीं मैं चल पाई थी।
##साड़ी पहनकर किसी भी काम को करना मुश्किल होता है। ऐसे में पारुल का यह स्टंट तारीफ के काबिल है। वे अक्सर अपने इंस्टाग्राम पर योग और जिमनास्ट करते हुए वीडियो साझा करती हैं।
डॉ. एस पद्मावती 103 साल की उम्र में कोविड-19 के चलते इस दुनिया में नहीं रहीं। नेशनल हार्ट इंस्टीट्यूट ने 30 अगस्त को यह जानकारी दी। उनका पिछले 11 दिनों से नेशनल हार्ट इंस्टीट्यूट में इलाज चल रहा था।
उनका जन्म म्यांमार में हुआ था। उन्होंने रंगून मेडिकल कॉलेज से ग्रेजुएशन के बाद कार्डियोलॉजी में अपने करिअर की शुरुआत की। डॉ पद्मावती को भारत में पहली कार्डियक केयर यूनिट की स्थापना का श्रेय दिया जाता है। उन्होंने 1981 में नेशनल हार्ट इंस्टीट्यूट की स्थापना की थी।
पद्मावती को कोविड-19 के चलते अस्पताल में भर्ती किया गया था। उन्हें सांस लेने में तकलीफ हो रही थी और बुखार भी था। निमोनिया का असर उनके दोनों लंग्स पर हुआ जिसकी वजह से उन्हें वेंटिलेटर पर रखा गया था। अस्पताल में कार्डियक अरेस्ट की वजह से वे चल बसीं।
पद्मावती के मेडिकल के क्षेत्र में सराहनीय योगदान को देखते हुए भारत सरकार ने 1967 में उन्हें पद्म भूषण से सम्मानित किया। उन्हें 1992 में भारत सरकार ने पद्म विभूषण से सम्मानित किया गया।
डॉ पद्मावती को हार्वर्ड मेडिकल इंटरनेशनल अवार्ड के अलावा कई प्रतिष्ठित पुरस्कार प्राप्त हैं। उन्हें डॉक्टर बीसी रॉय और कमला मेनन रिसर्च अवार्ड से भी सम्मानित किया जा चुका है।
कोरोनाकाल में सुसाइड, स्ट्रेस और डिप्रेशन के मामलों में बढ़ोतरी हुई है। डब्ल्यूएचओ के मुताबिक, दुनियाभर में 26 करोड़ से ज्यादा लोग डिप्रेशन से जूझ रहे हैं। लैंसेट जर्नल की एक रिपोर्ट के मुताबिक, हर 7 में से 1 भारतीय मानसिक रोगी है। इसलिए तय करें कि दिमाग को शांत रखने के लिए वक्त निकालेंगे। जयपुर के फिटनेस एक्सपर्ट विनोद सिंह बता रहे हैं डिप्रेशन, स्ट्रेस और एंग्जाइटी को दूर करने वाले 5 आसनों के बारे में...
अधोमुख श्वानासन (डाउनवर्ड फेसिंग डॉग पोज)
ऐसे करें
सेतुबंधासन (ब्रिज पोज)
ऐसे करें
शवासन (कॉर्प्स पोज)
ऐसे करें
चक्रासन
ऐसे करें
उत्तानासन
ऐसे करें
दुनियाभर में इस समय अब कोरोना के मामलों से ज्यादा वैक्सीन की चर्चा है। भारत समेत ज्यादातर देश इस साल के अंत कोरोना का टीका उपलब्ध होने की बात कह रहे हैं। लेकिन वैक्सीन तैयार करना जितना चुनौतीभरा काम है उतना ही मुश्किल होगा दुनियाभर के लोगों तक इसे पहुंचाना। वैक्सीन का सफर भी आसान नहीं होता। यह कई चरणों को पार करते हुए आप तक पहुंचता है, इसलिए तैयार होने में सालों लगते हैं। आज संडे स्पेशल खबर में पढ़िए कोविड-19 का टीका आप तक कैसे पहुंचेगा...
1- वायरस की पड़ताल
पहले शोधकर्ता पता करते हैं कि वायरस कोशिकाओं को कैसे प्रभावित करता है। वायरस प्रोटीन की संरचना से देखते हैं कि क्या इम्यून सिस्टम बढ़ाने के लिए उसी वायरस का इस्तेमाल हो सकता है। उस एंटीजन को पहचानते हैं, जो एंटीबॉडीज बनाकर इम्यूनिटी बढ़ा सकता है।
2- प्री-क्लिनिकल डेवलपमेंट में जानवरों पर परीक्षण होता है
मनुष्यों पर परीक्षण से पहले यह सुनिश्चित करना जरूरी है कि कोई टीका या दवा कितना सुरक्षित है और कारगर है। इसीलिए सबसे पहले जानवरों पर परीक्षण किया जाता है। इसमें सफलता के बाद आगे का काम शुरू होता है, जिसे फेज-1 सेफ्टी ट्रायल्स कहते हैं।
3- क्लिनिकल ट्रायलः इसमें पहली बार इंसानों पर परीक्षण होता है, इसके भी 3 चरण
पहला चरणः 18 से 55 साल के 20-100 स्वस्थ लोगों पर परीक्षण। देखते हैं कि पर्याप्त इम्यूनिटी बन रही है या नहीं।
दूसरा चरणः 100 से ज्यादा इंसानों पर ट्रायल। बच्चे- बुजुर्ग भी शामिल। पता करते हैं कि असर अलग तो नहीं।
तीसरा चरणः हजारों लोगों को खुराक देते हैं। इसी ट्रायल से पता चलता है कि वैक्सीन वायरस से बचा रही है या नहीं। सब कुछ ठीक रहा तो वैक्सीन के सफल होने का ऐलान कर दिया जाता है। अप्रूवल मिलने पर उत्पादन शुरू हो जाता है।
3- सूखी बर्फ या जमी हुई कार्बन-डाई ऑक्साइड में रखते हैं वैक्सीन
वैक्सीन तैयार होने के बाद इसे खास तरह के इंसुलेटेड डिब्बों में निकाला जाता है। वैक्सीन को ठंडा रखने के लिए इसे सूखी बर्फ या जमी हुई कार्बन-डाइ-ऑक्साइड वाले डिब्बे में रखा जाता है।
इन डिब्बों को बड़े-बड़े फ्रीजर में रखते हैं। ये फ्रीजर जहां होते हैं वहां लोग पीपीई किट पहनकर काम करते हैं। दस्ताने और चश्मा भी अनिवार्य रहता है, वरना इतनी ठंड वाले माहौल में काम करना आसान नहीं हो पाता।
4. -20 डिग्री रखा जा सकता है स्टोरेट रूम का तापमान
अब अगला चरण है, इसे लोगों तक पहुंचाने का। अब इसे इंसुलेटेड डिब्बों में सूखी बर्फ डालकर फिर पैक किया जाएगा और जहां जरूरत है वहां भेजा जाएगा। जिस कमरे में इसे रखा जाना है, वहां का तापमान -20 डिग्री तक ठंडा रखा जा सकता है। आमतौर मौजूद वैक्सीन के लिए 2 से 8 डिग्री का तापमान आदर्श माना जाता है।
5. कांच की शीशियों के साथ वैक्सीन रखने के लिए फ्रिज की भी चुनौती
वैक्सीन के प्रोडक्शन और डिस्ट्रीब्यूशन को लेकर कितनी चुनौतियां हैं, इस गावी के सीईओ ने अपनी बात रखी है। बीबीसी की रिपोर्ट के मुताबिक, गावी के सीईओ बर्कले कहते हैं हम इसे लेकर चिंतित थे। ऐसे में हमने दो अरब डोज के लिहाज से पर्याप्त शीशियां पहले ही ख़रीद लीं। हमें लग रहा है कि 2021 तक हमारे पास पास इतनी ही डोज़ होंगी।
न सिर्फ़ कांच की शीशियों की कमी की आशंका है बल्कि ऐसा ही फ्रिज के साथ भी है क्योंकि ज़्यादातर वैक्सीन्स को कम तापमान पर रखना ज़रूरी होगा।
दुनियाभर में 170 टीकों पर चल रहा काम
विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, इस समय दुनियाभर में करीब 170 टीकों पर काम चल रहा है, जिनमें से 30 का क्लीनिकल ट्रायल चल रहा है। इनमें से सभी टीके ऐसे नहीं हैं जिन्हें -80 डिग्री सेल्सियस पर स्टोर करने की जरूरत है। लेकिन स्टोरेज कंपनियों की कोशिश है कि चाहे जैसी भी वैक्सीन बने उसे लोगों तक पहुंचाने में स्टोरेज की कमी के कारण देर नहीं होनी चाहिए।
कोरोना काल में हाइजीन जीवन का जरूरी हिस्सा बन गया है। फिर चाहे वो ब्यूटी टूल्स ही क्यों न हों। इन्हें साफ़ रखना भी बहुत जरूरी है। ब्लश और कॉम्पैक्ट को एक ही ब्रश की मदद से लगाया जाता है। लिपस्टिक बुलेट्स, आई-लाइनर स्टिक्स और मस्कारा वैंड्स का उपयोग भी बार-बार किया जाता है।
ब्रश और स्पॉन्ज कई बार पैन व ट्यूब में आते-जाते हैं। नेल फाइलर और कंघी भी लगातार स्किन के सम्पर्क में आते हैं। आप अकेले इनका उपयोग करते हैं तो भी डेड स्किन, पसीना और ऑइल लगातार जमा होता ही रहता है। जानिए मेकअप प्रोडक्ट को घर में सैनिटाइज करने के कुछ टिप्स।
स्टरलाइज़र मशीन
जो लोग डिसइंफेक्टेंट को लेकर गंभीर हैं, उनके लिए यह एक आदर्श विकल्प है। पोर्टेबल हो या परमानेंट इसकी मदद से लगभग हर चीज सैनिटाइज की जा सकती है। इसमें मेकअप प्रोडक्ट्स, ब्यूटी टूल्स, चाबियां और वॉलेट को भी सैनिटाइज किया जा सकता है।
यूवी लाइट डिसइंफेक्टेंट
यह होम गैजेट यूवी लाइट्स स्टरलाइजर सैनिटाइजर वैंड, पोर्टेबल यूवी लाइट डिसइंफेक्शन लैम्प है जो घर, होटल, ट्रैवल कार में रखने के लिए चार्जेबल और फोल्डेबल भी है। इससे 99 प्रतिशत जर्म्स और बैक्टीरिया खत्म हो जाते हैं।
डिसइंफेक्टेंट स्प्रे
घर में डिसइंफेक्टेंट स्प्रे है तो मौजूदा चीज़ों को आसानी से सैनिटाइज किया जा सकता है। हाथ और फोन जैसे सरफेस पर मौजूद जर्म्स को खत्म करने का यह तरीका बेहद असरदार है। इस स्प्रे को हार्ड और सॉफ्ट हर तरह की सतह पर इस्तेमाल किया जा सकता है। स्किन पर इस्तेमाल होने वाले मेकअप ब्रश को साफ़ करने के लिए भी सुरक्षित है।
एंटी-बैक्टीरियल वाइप्स
दिनभर में न जाने कितनी ही सतह छूने के बाद उंगली से आइशैडो लगाते हैं या लिप बाम लगाते हैं तो हर तरह के जर्म्स इकट्ठा कर लेते हैं। हाथ, चेहरा और अन्य सतह साफ़ करने के लिए भी ये वाइप्स असरदार होते हैं।
आइसोप्रोपेल एल्कोहल क्लीनर
ये क्लीनर अक्सर हॉस्पिटल या सर्जिकल काम में इस्तेमाल होते हैं। अब घर में यूज हो रहा है। रबिंग एल्कोहल के नाम से मशहूर है, जिसकी मदद से मेकअप टूल्स सैनिटाइज किए जा सकते हैं। इससे डोर नॉब्स भी साफ़ कर सकते हैं।
साड़ियों की शौक़ीन कौन स्त्री नहीं होगी और पुरानी होती साड़ियों की फ़िक़्र भी किसे नहीं सताती होगी। तो ऐसे में जिन्हें सिलाई का थोड़ा-बहुत भी शौक़ है या कुछ तरकीबों को आज़माना आता है, तो पुरानी साड़ियों से घर को नवेला लुक देना चुटकी बजाते ही हो जाएगा।
1. शिफॉन के पर्दे
शिफॉन की साड़ियां पहनने में जितनी ख़ूबसूरत लगती हैं, इनके पर्दे भी उतने ही सुंदर दिखते हैं। अगर आपको थोड़ा बदलाव करना है तो शिफॉन की प्लेन साड़ी को खिड़की का पर्दा बना दें। सामान्य पर्दों के साथ मिलाकर भी बीच में डाल सकती हैं और रिबन या लैस से बांध सकती हैं। या फिर अलग-अलग रंग की प्लेन शिफॉन साड़ियों के पर्दे बनाकर लगाएं।
2. प्रिंटेड से दें नया रूप
यदि हमेशा प्लेन पर्दे डालती हैं तो इस बार कुछ नया आज़माएं। प्लेन पर्दों के बीच में प्रिंटेड साड़ी का पर्दा लगाएं। पर्दे के रंग से मिलते-जुलते रंग की साड़ी का चयन करें। ऐसा भी कर सकती हैं कि पूरे पर्दे प्रिंटेड ही रखें। ये तरीक़ा भी काफ़ी जंचेगा। इस तरह थोड़ा बदलाव भी हो जाएगा और साड़ियों का सही इस्तेमाल भी होगा।
3. कुशन कवर आज़माएं
अगर शादी की साड़ियां रखी हैं जो अब पहनने में नहीं आती हैं तो इन हैवी साड़ियों से कुशन कवर बना सकती हैं। इसके अलावा किसी साड़ी का वर्क अच्छा है तो उसे काटकर भी कुशन कवर पर लगा सकती हैं। इस तरह कवर को और ख़ूबसूरत बना सकेंगी।
4. मजबूत रनर्स बनाएं
अपनी हैवी साड़ी का ख़ूबसूरती से इस्तेमाल करना चाहती हैं तो ये तरक़ीब आपके लिए है। साड़ी से डाइनिंग टेबल रनर्स बना सकती हैं। ये बहुत बढ़िया लगते हैं। जब मेहमानों के आने की सूरत बनेगी या त्योहारों की फिर से धूम होगी, तो ये हैवी रनर्स आपके मन के उत्साह को सही ढंग से प्रतिबिम्बित करेंगे।
राष्ट्रीय शहरी आजीविका मिशन के तहत शुरू की गई 'उम्मीद की रसोई' उन महिलाओं को रोजगार प्रदान करती है, जिनकी नौकरी कोविड-19 की वजह से छूट गई है।
दिल्ली की बुद्ध नगर निवासी आरती महामारी से पहले लोगों के घरों में खाना बनाने का काम करती थी। लॉकडाउन की वजह से उसकी नौकरी छूट गई। ऐसे में उसके लिए अपने परिवार का खर्च चलाना मुश्किल हुआ। लेकिन नई दिल्ली की उम्मीद की रसोई का हिस्सा बनने के बाद वह खुश है।
आरती कहती है - ''हम पांच लोगों की टीम है। हमने मिलकर तीन किलो चावल और दो किलो राजमा बनाएं। पहले ही दिन 2:30 बजे तक सारा खाना बिक गया। अपने काम की शुरुआत हमने राजमा-चावल से की है। धीरे-धीरे अपने मेन्यू में और चीजें भी शामिल करेंगे''।
नई दिल्ली में अब तक की गई पहल जैसे 'उम्मीद की राखी' और 'उम्मीद के गणपति' की सफलता के बाद उम्मीद की रसाई की सफलता की आशा की जा रही है।
यह प्रोजेक्ट स्व सहायता समुहों के लिए बनाया गया है। डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट तन्वी गर्ग के अनुसार ये रसोई उन महिलाओं के जीवन में उम्मीद जगाएगी जो लॉकडाउन की वजह से अपनी नौकरी खो चुकी हैं।
तन्वी कहती हैं - ''हमारे नई दिल्ली जिला प्रशासन ने अपने तीन उपखंडों में 12 ऐसे समूहों का गठन किया है। इनमें वसंत विहार, दिल्ली कैंट और चाणक्यपुरी शामिल है। लगभग हर समूह में 20 महिलाएं हैं। हम उन्हें वित्तीय मामलों की ट्रेनिंग दे रहे हैं। साथ ही हाथ में बनी चीजों से आजीविका चलाने के उपाय भी बता रहे हैं''।
उम्मीद की रसाई के अंतर्गत स्व सहायता समुहों की महिलाएं अपने घर से खाना बनाकर स्टॉल पर लाती हैं और इसे बेच देती हैं। इनका एक स्टॉल वसंत विहार में एसडीएम ऑफिस के पास लगाया गया है। वहीं दूसरा सरोजिनी नगर मार्केट और तीसरा जामनगर में डीएम ऑफिस के पास स्थित है।
तन्वी के अनुसार, ''इन स्टॉल की शुरुआत से पहले महिलाओं को प्रोफेशनल शेफ द्वारा हाइजीनिक कुकिंग की ट्रेनिंग दी जाती है। उन्हें ये भी बताया जाता है कि खाना किस तरह से सर्व करना है, सोशल डिस्टेंसिंग का पालन कैसे करना है और मास्क पहनने का सही तरीका क्या है''।
उम्मीद की रसोई में 18 से 60 साल की महिलाएं काम कर सकती हैं। ये प्रोजेक्ट महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में सराहनीय प्रयास है।
शीशे के सामने खड़े होकर अपना चेहरा क़रीब से देखिए। ग़ौर कीजिए कि आपकी त्वचा आपकी सेहत के बारे में क्या संकेत दे रही है! चेहरे पर मुंहासे, होंठ फटना या त्वचा पर खुजली होना आम समस्याएं लगती हैं। कई दफ़ा हम सोचते हैं कि प्रदूषण, मौसम या हॉर्मोन में बदलाव इसके कारण हैं।
परंतु हर बार ऐसा नहीं होता है। ये अंदरूनी समस्याएं भी हो सकती हैं, जो त्वचा पर नज़र आने लगती हैं। कुछ ऐसी ही त्वचा संबंधी समस्याएं आपको बता रहे हैं, जो आम लगती हैं, लेकिन असल में ये आपकी सेहत का हाल बताती हैं।
1. आंखों के नीचे काले घेरे
आंखों के नीचे काले घेरे शरीर में कई तरह की कमज़ोरी का परिणाम होते हैं। अधिक नींद लेना, ज्यादा थकान, ज्यादा देर तक जागते रहना, टीवी या लैपटॉप/कंप्यूटर स्क्रीन पर अधिक वक़्त बिताना या अनियमित जीवनशैली के कारण बहुत से लोग काले घेरों की समस्या से पीड़ित हैं।
आमतौर पर आंखों के नीचे काले घेरे बढ़ती उम्र के कारण भी होते हैं। इसके अलावा कई बार यह समस्या आनुवंशिक भी होती है। आंखों में खिंचाव की वजह से काले घेरे बन सकते हैं। आंखों में सूखापन भी वजह बन सकती है। इसके अलावा डिहाइड्रेशन या धूप के कारण हो सकते हैं।
क्या करें :
काले घेरों का उपचार इनके कारणों पर निर्भर करता है, लेकिन कुछ उपाय आप कर सकते हैं, जैसे- कोल्ड टी की थैली लगाना और पर्याप्त नींद लेना। कोल्ड कंप्रेस लगाने से सूजन कम हो जाती है और रक्त वाहिकाओं को सिकुड़ने में मदद मिलती है।
हरी सब्ज़ियां और विटामिन-ई युक्त आहार लें। कई बार हीमोग्लोबिन की कमी के कारण भी ये घेरे हो सकते हैं, इसलिए आयरन युक्त खाद्य पदार्थ, जैसे पालक, सेब, किशमिश, चुकंदर आदि आहार में शामिल करें।
2. होंठों का फटना
मौसम के कारण होंठ फटना आम बात है, जो लिप बाम या क्रीम से ठीक हो जाते हैं। अगर होंठ हमेशा फटते रहते हैं और इनमें दर्द भी होता है, तो ये डिहाइड्रेशन यानी कि शरीर में पानी की कमी होने का संकेत है। ऐसे में अधिक से अधिक पानी पिएं। होंठ फटने का कारण लिप एक्जिमा भी हो सकता है।
क्या करें :
होंठ पर जीभ और लार न लगाएं और न इन्हें दांतों से न चबाएं। अगर फटे होंठ ठीक नहीं हो रहे हैं, तो त्वचा विशेषज्ञ से परामर्श लें।
3. गाल पर लाल चकत्ते
अगर गाल पर या नाक के ऊपरी हिस्से पर लाल चकत्ते हो जाते हैं तो यह ल्यूपस की समस्या है। गंभीर सूजन वाली इस बीमारी में चेहरे पर तितली आकार के लाल चकत्ते पड़ जाते हैं। आमतौर पर धूप के संपर्क में आने से इन चकत्तों की समस्या और भी बढ़ जाती है। इन लाल चकत्तों के साथ-साथ बुखार, खुजली और ठंड में उंगलियों की त्वचा हल्की नीली होने जैसी समस्या हो सकती है।
क्या करें :
इस स्थिति में त्वचा रोग विशेषज्ञ से परामर्श लेना ही अच्छा होगा।
4. त्वचा में खुजली
अगर शरीर के किसी भी हिस्से की त्वचा में लगातार खुजली होती है, खुजलाने के बाद भी नहीं रुकती, त्वचा लाल हो जाती है और खुजली के कारण नींद भी प्रभावित होती है, तो इसका कारण एटॉपिक डर्मेटाइटिस हो सकता है। ये समस्या किसी भी उम्र में हो सकती है। आमतौर पर ये एलर्जी या हे-फीवर की वजह से होती है।
क्या करें :
कुछ ज़रूरी बातों का ध्यान रखें, जैसे देर तक नहीं नहाएं, पसीना, धूल, डिटर्जेंट, परागकणों से दूर रहें। किन खाद्य पदार्थों से एलर्जी है, यह डॉक्टर की मदद से पता करें। सौम्य साबुन से नहाएं।
नहाने के बाद शरीर को अच्छी तरह से सुखाएं। दिन में दो बार त्वचा को मॉइस्चराइज़ करें। वज़न कम करने और व्यायाम करने से त्वचा की खुजली कम हो सकती है। इस सबके बावजूद खुजली कम नहीं हो रही है, तो लिवर और किडनी की बीमारी भी कारण हो सकती है। ऐसे में जांच कराना बेहतर विकल्प है।
5. चेहरे पर मुंहासे
माथे पर मुंहासे बालों में अधिक डैंड्रफ के कारण हो सकते हैं। इसके अलावा तनाव या ठीक तरह से नींद न ले पाना भी वजह हो सकती है। जिनको यह समस्या होती है उनका पाचनतंत्र सही नहीं होता। अगर ठुड्डी पर लगातार मुंहासे निकल रहे हैं तो ये हॉर्मोन की समस्या हो सकती है।
ऐसा सही तरह से पीरियड्स न होने पर भी होता है। अगर चेहरे और कान के किनारों पर मुंहासे निकल रहे हैं तो हॉर्मोन का असंतुलित होना कारण हो सकता है।
क्या करें :
हो सकता है कि कॉस्मेटिक प्रॉडक्ट्स और शैंपू त्वचा को नुक़सान पहुंचा रहे हों। ऐसे में इन्हें बदलकर देखिए। गालों पर मुंहासे निकलने की वजह आहार में शक्कर की अधिक मात्रा का सेवन करना है। ऐसे में कम प्रोसेस्ड शुगर लें। इसके बावजूद मुंहासों की समस्या बनी हुई है, तो त्वचा रोग विशेषज्ञ से सलाह लें।
अहमदाबाद की फार्मा कम्पनी इंटास फार्मास्युटिकल ऐसी दवा विकसित की है जो कोरोना मरीजों के लिए प्लाज्मा थैरेपी का विकल्प बनेगी। कंपनी का दावा है कि इस दवा को लेने के बाद कोविड-19 रोगियों को प्लाज्मा थैरेपी की जरूरत नहीं पड़ेगी। इस दवा को मानव प्लाज्मा से तैयार किया गया है।
ह्यूमन ट्रायल की मंजूरी मिली
इंटास फार्मास्युटिकल के चिकित्सा और नियामक मामलों के हेड डॉ. आलोक चतुर्वेदी ने कहा कि यह देश में पहली बार है कि ऐसी दवा बनाई जा रही है जो पूरी तरह से स्वदेशी है। कोविड-19 के उपचार के लिए विशेष रूप से विकसित हाइपरिम्यून ग्लोब्युलिन के ह्यूमन ट्रायल के लिए ड्रग कंट्रोलर जनरल ऑफ इंडिया (डीसीजीआई) से मंजूरी मिल गई है। हम इसके लिए गुजरात और देश के कई अस्पतालों के साथ बातचीत कर रहे हैं। अगले एक महीने में ट्रायल शुरू हो जाएगा।
30 एमजी की खुराक पर्याप्त होगी
डॉ. चतुर्वेदी के मुताबिक, वर्तमान में कोरोना रोगियों को लगभग 300 एमजी प्लाज्मा के साथ प्लाज्मा थैरेपी दी जाती है। दूसरी बात, यह तय नहीं है कि यह हर मरीज को कैसे और किस हद तक प्रभावित करता है। नई तैयार होने वाली हाइपरिम्यून ग्लोब्युलिन की 30 एमजी की एक खुराक रोगी के लिए पर्याप्त है।
अब तक हुआ परीक्षण सफल रहा
दवा पर अब तक हुआ परीक्षण सफल रहा है। डॉ. चतुर्वेदी ने कहा कि यह दवा मानव प्लाज्मा से बनाई गई है, इसलिए इसके परिणाम परीक्षण के एक महीने के भीतर आने की उम्मीद है। परीक्षण सफल रहने पर दवा अगले तीन महीनों में लॉन्च करने के लिए तैयार होगी क्योंकि इसके उत्पादन के लिए जरूरी अनुमति लेने में एक महीने का समय लगेगा।
कैसे काम करती है प्लाज्मा थैरेपी
कोरोना के ऐसे मरीज जो हाल ही में बीमारी से उबरे हैं उनके शरीर में मौजूद इम्यून सिस्टम ऐसे एंटीबॉडीज बनाता है जो ताउम्र रहते हैं। ये एंटीबॉडीज ब्लड प्लाज्मा में मौजूद रहते हैं। इसे दवा में तब्दील करने के लिए ब्लड से प्लाज्मा को अलग किया जाता है और बाद में इनसे एंटीबॉडीज निकाली जाती हैं। ये एंटीबॉडीज नए मरीज के शरीर में इंजेक्ट की जाती हैं इसे प्लाज्मा थैरेपी कहते हैं। यह मरीज के शरीर को तब तक रोगों से लड़ने की क्षमता बढ़ाता है जब तक उसका शरीर खुद ये तैयार करने के लायक न बन जाए।
असम राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण द्वारा 21 अगस्त को प्रकाशित दैनिक बाढ़ रिपोर्ट के अनुसार, असम में चल रही बाढ़ से 30 जिलों के 56.9 लाख से अधिक लोग प्रभावित हुए हैं। इस बाढ़ से घिरी महिलाओं की तमाम परेशानियों के साथ एक परेशानी सैनिटरी पैड न मिल पाना भी है।
राहत किट में सैनिटरी पैड को शामिल करने के लिए कार्यकर्ता मयूरी भट्टाचार्जी ने Change.org याचिका शुरू की है। असम में 600 से अधिक राहत शिविर और राष्ट्रीय आपदा प्रतिक्रिया बल तैनात किया गया है।
इन मुश्किल हालातों में उन महिलाओं के लिए सैनिटरी पैड की कोई सुविधा नहीं है जिन्हें हर महीने इसकी जरूरत होती है। बाढ़ राहत किट में सैनिटरी पैड का न होना महिलाओं के लिए दुर्भाग्यपूर्ण ही है।
मयूरी कहती हैं - ''मैं असम की बाढ़ प्रभावित उन लाखों लड़कियों और महिलाओं की ओर से बोल रही हूं जो हर साल बाढ़ में फंस जाती हैं। यहां जब बाढ़ का पानी आता है तो घर का एक कपड़ा भी साफ और सूखा नहीं रहता।
जब इन महिलाओं को राहत कैंप में जगह दी जाती है तो वहां भी इनके लिए सैनिटरी पैड की सुविधा नहीं होती। न ही टॉयलेट का उचित प्रबंध होता है''।
असम में तेजपुर की रहने वाले भट्टाचार्जी ने राज्य के मंत्री हेमंत बिस्वा सरमा से आपदा के दौरान जरूर सामानों की सूची में सेनेटरी पैड को शामिल करने का आग्रह किया है। वह लगातार राज्यमंत्री को ईमेल भी करती रही हैं। लेकिन कोई प्रतिक्रिया नहीं मिलने पर मयूरी ने इस याचिका की शुरुआत की।
2025 तक देश में कैंसर पीड़ितों की संख्या करीब 15.7 लाख होगी। यहां कैंसर रोगियों का जिक्र इसलिए, क्योंकि मौजूदा कोरोना काल में कैंसर मरीजों को सबसे ज्यादा दिक्कते हो रही हैं। कोरोना के चलते कैंसर पीडितों के इलाज और उनकी देखभाल में भारी बदलाव आया है।
विशेषज्ञों ने अमेरिका के न्यूयार्क स्थित मोंटफोर मेडिकल सेंटर में भर्ती 218 ऐसे कैंसर मरीजों का अध्ययन किया जो कोरोना से संक्रमित हो चुके थे। 18 मार्च से 8 अप्रैल के बीच की गई इस स्टडी में वैज्ञानिकों ने पाया कि इनमें से 61 मरीजों की मौत कोरोना संक्रमण से हो गई जो कि कुल संख्या का 28% है। इस दौरान अमेरिका में कोरोना से मृत्यु दर 5.8 प्रतिशत थी। कोरोनाकाल में इनकी देखभाल कैसी होनी चाहिए, यह बता रहे हैं अपोलो अस्पताल, नवी मुम्बई के सर्जिकल ऑन्कोलॉजी विभाग के कंसल्टेंट डॉ. शिशिर शेट्टी....
इन 12 में से कोई भी लक्षण दिखते ही डॉक्टर से सम्पर्क करें
रिसर्च : कम श्वेत रक्त कणिकाएं जिम्मेदार
लॉकडाउन की घोषणा के बाद से ही कैंसर रोगी अस्पतालों में जाने और संक्रमण के खतरे के कारण उपचार और अन्य प्रक्रियाओं को फिर से शुरू करने से डर रहे हैं। अमेरिका के नेशनल कैंसर इंस्टीट्यूट के अनुसार ऐसे लोग जिनका पूर्व में कैंसर का उपचार हुआ है उनकी रोग प्रतिरोधक शक्ति (इम्युनिटी) कमजोर हो जाती है।
दरअसल कीमोथैरेपी जैसे ट्रीटमेंट के कारण श्वेत रक्त कणिकाओं का बनना कम हो जाता है। श्वेत रक्त कणिकाएं रोग प्रतिरक्षा प्रणाली का प्रमुख अंग हैं। ऐसे में व्यक्ति कोरोना वायरस से गंभीर रूप से संक्रमित हो सकता है।
हालांकि कैंसर रिसर्च यूके की रिपोर्ट के अनुसार भले ही किसी व्यक्ति का कैंसर उपचार के बाद ठीक हो चुका हो, लेकिन ऐसे लोगों को भी कोरोना वायरस के संक्रमण का खतरा अधिक है। क्योंकि रोगप्रतिरोधक क्षमता समय के अनुसार धीरे-धीरे ही बढ़ेगी। ऐसे में इन लोगों को सावधानी बरतनी चाहिए।
वो बातें जो हाई रिस्क रोगियों के लिए बेहद जरूरी हैं
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने रेडियो प्रोग्राम 'मन की बात' में जिस स्कूल टीचर की तारीफ की, उसका नाम ममता मिश्रा है। ममता यूपी के प्रयागराज के विकासखंड चाका में टीचर हैं। मोदी ने उन्हें प्रोत्साहित करने के लिए एक लेटर भी लिखा।
आज ममता मिश्रा के प्रयासों से इस स्कूल की गिनती प्रायवेट स्कूल में होने लगी है। अगर हर स्कूल में ममता के बताए हुए रास्ते को अपनाया जाए तो वह दिन दूर नहीं जब प्रायवेट स्कूल के बच्चे भी सरकारी स्कूल में पढ़ने लगेंगे और हर स्टूडेंट पढ़ाई में टॉपर होगा।
ममता के स्कूल के अधिकांश बच्चे फर्स्ट क्लास हैं। इसका सारा श्रेय ममता को जाता है। उन्हीं के प्रयासों से इस सरकारी स्कूल की गिनती प्रायवेट स्कूल में होने लगी है।
ममता ने कानपुर में केंद्रीय विद्यालय से स्कूली शिक्षा प्राप्त की। उसके बाद उन्होंने छत्रपति साहू जी महाराज यूनिवर्सिटी, कानपुर से बीएड किया और मास्टर्स डिग्री ली। वे कहती हैं - ''मेरी मां एक टीचर हैं। मैंने बचपन से अपनी मां को पूरी ईमानदारी के साथ स्टूडेंट को पढ़ाते हुए देखा। वे मेरे लिए रोल मॉडल बनीं। उन्हें देखकर मैंने ये तय कर लिया था कि एक दिन बड़े होकर मैं भी टीचर बनूंगी''।
इस स्कूल की काया पलटने में ममता को कड़ी मेहनत करना पड़ी। वे कहती है ''सबसे पहले मैंने उन लोगों की सोच बदलने का प्रयास किया जो सरकारी स्कूल को गंभीरता से नहीं लेते''।
इन स्कूलों में पढ़ने वाले अधिकांश बच्चे गरीब घर से थे। इन बच्चों को पहले घर का काम करना पड़ता है। उसके बाद ये स्कूल आ पाते हैं। ममता ने इन बच्चों के माता-पिता को शिक्षा का महत्व समझाया ताकि वे शिक्षा के प्रति जागरुक हो सकें।
इन विद्यार्थियों में शिक्षा का स्तर ऊंचा करने के साथ ही ममता ने इनकी फिजिकल एक्टिविटीज बढ़ाने का भी प्रयास किया। उन्होंने स्कूल में स्पोर्ट्स व एक्स्ट्रा कैरिकुलर एक्टिविटीज की शुरुआत की।
इसके लिए ममता ने स्मार्ट क्लासेस का सहारा लिया। अपने स्कूल के बच्चों के लिए मोबाइल, टेबलेट जैसे सारी चीजें उन्होंने अपनी सैलरी से खरीदी और उन्हें पढ़ाने की शुरुआत की।
इस खबर के सोशल मीडिया पर वायरल होते ही लोग उनकी तारीफ करते नहीं थक रहे हैं। लॉकडाउन के बाद से वे बच्चों को दीक्षा एप के माध्यम से पढ़ा रही हैं।
उन्होंने बच्चों की पढ़ाई में ऑडियो-वीडियो तकनीक का इस्तेमाल किया है। उनका यू ट्यूब चैनल भी है जिसका नाम ''ममता अंकित'' है। इस चैनल के माध्यम से वे बच्चों को पढ़ाई के रोचक तरीके बताती हैं। साथ ही टीचर्स को पढ़ाई के आसान तरीके भी सीखाती हैं।
सुशांत सिंह केस के मामले में नई उलझन सामने आई है। रिया चक्रबर्ती ने हाल ही में आजतक को दिए एक इंटरव्यू में अपनी यूरोप ट्रिप का जिक्र किया। रिया ने सुशांत पर बात करते हुए कहा कि उन्हें क्लॉस्ट्रोफोबिया था, पिछले साल यूरोप ट्रिप के लिए उड़ान भरने से पहले उन्होंने अपनी इस बीमारी से निपटने के लिए मोडाफिनिल नाम की दवा ली थी।
रिया के मुताबिक, सुशांत ने कहा था कि उन्हें प्लेन में बैठने से डर लगता है, इसलिए क्लॉस्ट्रोफोबिया से बचने के लिए मोडाफिनिल लेते हैं।
क्या होता है क्लॉस्ट्रोफोबिया
क्लॉस्ट्रोफोबिया एक तरह का डर है। इसके मरीजों को बंद जगहों में जाने से परेशानी या घुटन महसूस होती है। कुछ मरीजों इसका इतना असर होता है कि उन्हें हर तंग जगह जाने में बहुत ज्यादा डर लगता है। जैसे- लिफ्ट या एमआरआई मशीन
एक बयान से सामने आए रिया के दो झूठ
पहला झूठ : मोडाफिनिल दवा क्लाउस्ट्रोफोबिया के मरीजों को नहीं दी जाती है
दूसरा झूठ : बोइंग-737 विमान की ट्रेनिंग लेने वाले को ऊंचाई या बंद जगह से डर कैसे लग सकता है
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